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अध्यात्म के प्रयोक्ता
से बचकर ऐसा मार्ग खोजना चाहिए, जो साधना के उपयुक्त वातावरण की वकालत करता हुआ भी उसे व्यक्ति के जीवन से जोड़े।
* साधक अकेला भी साधना कर सकता है और समूह में भी कर सकता है। दूसरे सब काम समूह में हो सकते हैं, तब साधना में कौनसी बाधा है? ग्राम हो या नगर, जंगल हो या सूना घर, साधक के मन में एकांत हो तो वह समूह में रहकर भी अकेला है। जब तक मन में एकांत नहीं होता, व्यक्ति जंगल में जाकर भी भीड़ से घिरा रहता है।
* निश्चय की भूमिका में साधक अकेला ही होता है। व्यवहार की भूमिका उसे संघ के साथ जोड़ती है। संघ के साथ रहते हुए अकेलेपन को अनुभव करना यह भूमिका सही अर्थ में एक प्रशस्त भूमिका है।
संघबद्ध साधना में प्रेरणा की सहस्रों धाराएं बहती रहती हैं। वहां स्खलना पर अंगुलिनिर्देश अवश्यंभावी है। इस संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का स्पष्ट मंतव्य था कि वैयक्तिक जीवन निरपेक्ष होता है। साधना की परिपक्वता के बिना एकाकी साधना घातक हो सकती है। कब उठना, कब सोना, कब बोलना, कब मौन रहना, कब ध्यान करना, कब स्वाध्याय करना, कब भोजन करना और कब उपवास करना? कोई कहने वाला नहीं होता। व्यक्ति अपनी इच्छा की प्रेरणा से जब जो चाहे कर सकता है। वही व्यक्ति समूह के साथ जुड़ता है तो मर्यादा एवं व्यवस्थाएं आवश्यक हो जाती हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार एकांतवास का अर्थ है-प्रतिस्रोतगमन। भीड़ से हटकर चलना एकांतवास है। अनुस्रोत में सब बह सकते हैं लेकिन प्रतिस्रोत में कोई-कोई ही चल सकता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर का 'एकला चलो रे' और महावीर का 'संजोगा विप्पमुक्कस्स' सूक्त एकांतवास के वाचक बन सकते हैं।
एकान्तवास मस्तिष्क की क्षमता और अन्तर्दृष्टि के विकास का महत्त्वपूर्ण पहलू है। कुछ लोग अकेलेपन को एकांत मानते हैं। किन्तु एकांत का अर्थ है जहां एक का भी अन्त हो जाए। जहां व्यक्ति स्वयं रहता हुआ भी अपने भौतिक शरीर और मन से स्वयं को अलग अनुभव कर लेता है अर्थात् जहां विदेह की स्थिति में चला जाता है, वही वास्तविक एकांत है। इस संदर्भ में गुरुदेव का मंतव्य मननीय है- 'संकुलता केवल