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साधना की निष्पत्तियां आत्मशुद्धि का जहां प्रश्न है, सम्प्रदाय का मोह न हो। चाह न यश की और किसी से, भी कोई विद्रोह न हो। स्वर्ण-विघर्षण से ज्यों सत्य, निखरता संघर्षों के द्वारा॥
आग्रह की भांति तर्क भी सत्य-प्राप्ति में बाधक तत्त्व है। तर्क सत्य को निश्छल नहीं रहने देता। इसलिए कहा जाता है कि सत्य बोला नहीं जा सकता, सुना नहीं जा सकता, पढ़ा नहीं जा सकता पर पाया जा सकता है। पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि तर्क बौद्धिक व्यायाम है। अधिक तर्क एक प्रकार से शिरस्फोटन है। वे कहते थे– 'एक समय था जब मैं स्वयं तर्कवाद को पसन्द करता था और उसके आधार पर अनेक तार्किकों को परास्त भी किया करता था पर अब तर्क में मेरा कोई रस नहीं रहा। आज कोई तार्किक व्यक्ति मेरे पास आता है तो मैं मौन हो जाता हैं। मैंने अनुभव किया है कि तर्क सत्य की कसौटी नहीं है। वह पूर्व को पश्चिम तथा पश्चिम को पूर्व में बदल सकता है, पर सत्य को नहीं पा सकता। वाद-विवाद के प्रसंग में भी मेरा अनुभव है कि तर्कों का सहारा छोड़कर सामंजस्य और अनेकान्त का सूत्र खोजने वाला समस्याओं का पार पा लेता है और सत्य को खोजने में कामयाब बन सकता है।' महात्मा गांधी ने भी इसी अनुभूति को व्यक्त किया है- "जिस प्रकार हीरा केवल पृथ्वी के गर्भ से ही प्राप्त हो सकता है, उसी प्रकार सत्य केवल गंभीर चिन्तन द्वारा आत्मा की गहराइयों में ही मिल सकता है।
___ सत्यनिष्ठ व्यक्ति को वचनसिद्धि का वरदान स्वतः मिल जाता है क्योंकि वह किसी भी कीमत पर अपने वचन की रक्षा करता है। सत्य की अखंड साधना से पूज्य गुरुदेव को वचनसिद्धि प्राप्त हो गयी थी। महर्षि पतंजलि ने सत्य की महत्ता इसी रूप में उद्गीर्ण की है-सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।
पूज्य गुरुदेव के जीवन में हजारों ऐसे प्रसंग घटित हुए, जब सहज रूप से निकला हुआ उनका वचन उसी रूप में परिणत हो गया। सन् १९६० का प्रसंग है। पूज्य गुरुदेव रणकपुर से सायरा की ओर विहार कर रहे थे। मुनिश्री नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) को आगम-कार्य के लिए राजसमंद जाने का निर्देश दिया गया। उस रात गुरुदेव ने मुनि नथमलजी के