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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी १६२ अवबोध की दिशाएं खुल सकती हैं। अनेकान्त द्वारा हर तत्त्व में सापेक्ष सत्य के दर्शन किए जा सकते हैं। पूज्य गुरुदेव ने अनेकान्त को जीया था, इसलिए वे सभी प्रकार के आग्रह एवं अभिनिवेशों से मुक्त थे। अनेक बार इस सत्य का प्रतिपादन करते हुए वे कहते थे- "मैं अहिंसाधर्मी हूं और समन्वय में विश्वास करता हूं। मैंने धर्म को रूढ़ि और आग्रह के रूप में स्वीकार नहीं किया है, किन्तु सत्यनिष्ठा के रूप में स्वीकार किया है। इसलिए आग्रह के वशीभूत होकर किसी को चोट पहुंचाना या भिन्न विचारों के प्रति असहिष्णु होना न मेरा कर्त्तव्य है और न मैं इसे पसन्द करता हूं" सत्य तो एक विराट् तत्त्व है, उसको उसी रूप में देखा या जीया जाए, तभी उसे पाया जा सकता है। इस विशाल दृष्टिकोण को स्वीकार करने के कारण पूज्य गुरुदेव सत्य को सम्प्रदाय-विशेष में आबद्ध नहीं देखते थे। साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण धर्मविशेष पर आक्षेप करने वालों को जब गुरुदेव प्रतिबोध देते तो उनकी सत्यनिष्ठा प्रकर्षरूप में प्रकट होती थी। वे अनेक बार इस पीड़ा को व्यक्त करते थे कि हमारी शक्ति सम्प्रदायों के महल खड़े करने में नहीं अपितु सत्य को उजागर करने में लगे। जैन शब्द को भी वे वहीं तक पकड़े रहना चाहते थे, जहां तक वह सम्पूर्ण मानव-हितों से विसंगत नहीं होता हो। सम्प्रदाय के संदर्भ में उनके ये वक्तव्य प्रकृष्ट सत्यनिष्ठा के द्योतक हैं * सम्प्रदाय में सत्य है पर सम्प्रदाय ही सत्य नहीं है। सम्प्रदाय के बाहर भी अनन्त-अनन्त सत्य विद्यमान है- इस तथ्य को स्वीकार कर चलने से हमारे सामने कोई कठिनाई या उलझन पैदा नहीं होगी। *"मेरी आस्था इस बात में है कि सम्प्रदाय अपने स्थान पर रहें और उनका उपयोग भी हो किन्तु वह सत्य का स्थान न ले। सत्य का माध्यम ही बना रहे, स्वयं सत्य न बने।" । सम्प्रदाय और सत्य के बारे में कहे गये उक्त वक्तव्य एक नयी सोच प्रस्तुत करते हैं कि सत्य की उपलब्धि के लिए सम्प्रदाय हो, न कि सम्प्रदाय की सुरक्षा के लिए सत्य।उनका सत्यग्राही दृष्टिकोण साम्प्रदायिक वैमनस्य एवं विग्रह को शमन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। 'प्रयाणगीत' में उन्होंने इसको क्रांतस्वर में अभिव्यक्ति दी है
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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