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साधना की निष्पत्तियां साथ नहीं, आत्मा के विकास से है। सत्य का साधक आत्म-विकास के शिखर पर आरोहण कर सकता है किन्तु जीवन के हर मोड़ पर वह विजय का वरण करे, ऐसी प्रतिबद्धता नहीं होती। व्यवहार में एवं न्यायालय में अनेक प्रसंगों पर सत्यवादी को हारते हुए एवं असत्यभाषी को जीतते हुए देखा जा सकता है।"
इस प्रसंग में आचार्य महाप्रज्ञ का चिंतन भी मननीय है- "जैसे पहाड़ पर बरसा हुआ पानी अधिक समय तक ऊपर नहीं ठहरता, नीचे आ जाता है, वैसे ही परिस्थिति के चक्र में अशांति की बात कभी-कभी आ जाती है किन्तु जिस व्यक्ति का मन सत्य से जुड़ा हुआ है, जिसके मन में सत्य के प्रति गहरी आस्था है, वहां अशांति टिक नहीं पाती। आती है और चली जाती है। अर्हद्वाणी' में पूज्य गुरुदेव सत्यशोधक के वैशिष्ट्य को उजागर करते हुए कहते हैं
विहत अरति रति से जब होता, नहीं संतुलन अपना खोता। सुख-दुःख में संक्लेश न जिसको वही सत्य का अनुसंधानी
आयारो की अर्हत्-वाणी॥ जो मेरा है, वह सत्य है इस आग्रह का समर्थन मैं नहीं कर सकता और न ही इस बात को मान्यता दे सकता हूं कि जो भी सत्य है, वह मेरा ही है इसीलिए मैं आग्रह से बहुत दूर रहता हूं। कभी-कभी आग्रह करता भी हूं पर सम्बन्धित विषय की अयथार्थता प्रतीत होते ही मैं तत्काल उसे छोड़ देता हूं।" पूज्य गुरुदेव के इस मार्मिक वक्तव्य से स्पष्ट प्रतिध्वनित होता है कि सत्य किसी की बपौती नहीं हो सकता। सत्य का सूर्य उसी दरवाजे पर दस्तक देता है, जो अपने चिन्तन की खिड़कियों को खुली रखता है। आग्रही व्यक्ति का स्पर्श पाकर सत्य भी असत्य हो जाता है। पूज्य गुरुदेव अनेक बार इस तथ्य को प्रकट करते थे कि हम जो जानते हैं
और कहते हैं, वह सत्यांश होता है। सत्य के अंश को पूर्ण सत्य मानना धोखा है। जहां-जहां सत्य का अंश मिले, उसे स्वीकार करने का मनोभाव बना रहे तो सत्य के अनेक अंशों का अवबोध किया जा सकता है। सत्य को समझने में अनेकांतदृष्टि का उपयोग किया जाए, तभी पूर्ण सत्य के