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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१६० वाला या प्रसन्नता से उन्हें स्वीकार करने वाला ही सत्य की सौरभ को प्राप्त कर सकता है।
- १६ सितम्बर १९६६ का घटना प्रसंग है। ब्रह्मबेला में पूज्य गुरुदेव की सन्निधि में स्वाध्याय का क्रम चल रहा था। गुरुदेव ने शैक्ष साधुओं को आह्वान करके उनके समक्ष एक प्रश्न उपस्थित किया- 'पांच महाव्रतों में कठिन महाव्रत कौनसा है?' उत्तर में प्रायः संतों ने ब्रह्मचर्य का नाम लिया। गुरुदेव ने इसके विपरीत अपना मंतव्य व्यक्त करते हुए कहा- 'वैसे तो सभी महाव्रत कठिन हैं किन्तु सत्य महाव्रत कठिनतम है। मुनि हिंसा से विरत रह सकता है; अदत्त ग्रहण नहीं करता, मैथुन-विरमण कर सकता है, ममकार भाव को भी मिटा सकता है किन्तु समय पर सत्य पर दृढ़ रहना अत्यन्त कठिन है।' अपनी बात की पुष्टि में वक्तव्य जारी रखते हुए गुरुदेव ने कहा- "बड़ी से बड़ी त्रुटि हो जाने पर भी यथातथ्य बतला दे, किंचित् भी वाच्य-परिवर्तन न करे, वही महान साधक है। सत्य-पालन में किसी प्रकार की कुटिलता नहीं होती। सत्य में हृदय की सरलता बोलती है। जो सत्यवादी होता है, वही समय पर अभय रह सकता है क्योंकि असत्यभाषण के पीछे कोई न कोई भय छिपा रहता है। मेरा ऐसा दृढ़ विश्वास है कि अगर सत्य सिद्ध हो गया तो अन्यान्य सारे गुण स्वतः सिद्ध हो जाएंगे। सत्य को जन-जन के मानस में प्रतिष्ठित करने की उनकी उदा आकांक्षा काव्य की इन पंक्तियों में पठनीय है
सत्य धर्म का झंडा जन-जन के, मंदिर में लहराए, धर्म नाम से शोषण अत्याचार, कभी ना हो पाए। ऐसा करें प्रचार व्यवस्थित, और संगठन रूप लिए। जिएंनजीने के हितहमसब, अटल साधना लिए जिएं॥
सत्य की मिठास उपलब्ध होने पर व्यक्ति किसी भी स्थिति में उसे छोड़ नहीं सकता पर सामान्य आदमी सोचता है कि सत्य के आधार पर जिंदगी नहीं चल सकती। सब लोग असत्य के सहारे ऊपर चढ़ रहे हैं, सम्मान पा रहे हैं, विजय हासिल कर रहे हैं तो अकेला मैं ही क्यों पीछे रहूं-इस मिथ्याधारणा का प्रतिवाद करते हुए पूज्य गुरुदेव ने नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहा- "सत्य की साधना का सम्बन्ध जय-विजय के