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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२६८ में प्रशस्ति के स्वर प्रस्तुत कर रहे थे। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने गुरुदेव के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा- 'आज अन्य लोग मेरा अभिनन्दन कर रहे हैं। मैं भी इस अवसर पर स्वयं का अभिनन्दन स्वयं करता हूं वह इसलिए कि मुझे ऐसे गुरु मिले हैं। मुझे तैयार करने वाले तुलसी गुरु ही हैं। यदि तुलसी नहीं होते तो नथमल आज इस रूप में नहीं होता।'
पूज्य गुरुदेव ने वातावरण में नया मोड़ देते हुए कहा- 'आज लोग मेरी और महाप्रज्ञ की प्रशस्ति में उलझ गए पर सारे एक बात को भूल गए।
और तो भूले सो भूले पर आचार्यजी (महाप्रज्ञजी) भी भूल गए। यह सारा प्रताप पूज्य कालूगणी का है। मैं जो कुछ हूं, उन्हीं का हूं। मैं उनका गुणगान तथा स्मृति किए बिना कैसे रह सकता हूं। महाप्रज्ञ कृतज्ञ हो गए क्योंकि इन्होंने मेरे प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर दी। पर मैं कैसे अकृतज्ञ होऊं? मैं कृतज्ञता के मामले में इनसे भी आगे जाना चाहता हूं। मैं तो एक मिट्टी का ढेला था पर कालू प्रभु ने घुटाई-पिटाई करके मुझे कुम्भ का रूप दे दिया। करामात घड़े की नहीं, कुंभकार की है। मैंने इसीलिए यह गीत गाया
कालू कालू बोलूं, अन्तर-मानस पट खोलूं रे। श्री कालू री मोहन मूरत हृदय बिठाऊं मैं॥ फिर पल-पल ध्याऊं मैं, तन्मय बण जाऊं मैं। उदाहरण ही जो चाहो, मैं स्वयं सामने आऊं। साजो सोतो वर्तमान, क्यूं अतीत में ले जाऊं। इक मिट्टी को ढेलो, देखो खेलो अलबेलो रे।
कियां कुंभ को रूप दियो, कुछ सोच न पाऊं मैं।
धवल समारोह के अवसर पर पूज्य गुरुदेव मातुश्री वदनांजी की स्मृति करते हुए कहने लगे- 'मां का उपकार जीवन में इतना है कि अनेक बार इच्छा होती है मैं स्वयं झोली पातरी लेकर भिक्षा लाऊं और वदनांजी को पारणा कराऊं। माताजी ने हमें संस्कार दिए हैं तो कम से कम मैं भिक्षा में रोटी तो लाऊ।'
पूज्य गुरुदेव चाहते थे कि जन-जन के भीतर आस्था का भाव जागे क्योंकि आस्थाबल जीवन की हर दुर्गम घाटी में व्यक्ति के मनोबल को