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साधना की निष्पत्तियां पूज्य गुरुदेव लाखों लोगों की श्रद्धा के एकमात्र आधार थे। हर भक्त उनमें साक्षात् भगवान् के दर्शन करता था। पट्टोत्सव के अवसर पर चतुर्विध संघ मुक्त कंठ से उनकी गुणोत्कीर्तना करता पर वे इसे पसन्द नहीं करते। अपनी सफलता का सारा श्रेय वे अपने गुरु के कर्तृत्व को देना चाहते थे। उनके मुख से निःसृत ये उद्गार हर श्रद्धालु हृदय को झकझोरने वाले हैं
*"मैं अभी-अभी सोच रहा था- मेरा कैसा अभिनन्दन? अभिनंदन हो पूज्य गुरुदेव श्रद्धेय श्री कालूगणी का, जिन्होंने हममें कुछ
कर्तव्य के भाव भरे। जिन्होंने हमें बौद्धिक जगत् में बैठने की क्षमता दी। - यह सब कुछ जो आज दीखता है, उन्हीं की देन है। एक कुंभ का क्या
अभिनन्दन हो? अभिनन्दन हो कुंभकार का, जिसकी कला ने अपना नैपुण्य घड़े में निहित किया। यह अभिनंदन हो उस संरक्षक का, जिसने घड़े को सुरक्षित रखा।"
"मुझे सारा प्रशिक्षण पूज्य कालूगणी से मिला। आज भी उनकी हर क्रिया, गायन-शैली और प्रशिक्षण का तरीका हूबहू मेरी आंखों के सामने है। मैं आपको उनका सजीव चित्र दिखा देता यदि मैं चित्रकार होता।"
* आचार्य भिक्षु से मुझे अध्यात्म, आचारनिष्ठा और अनुशासन के सूत्र मिले, उसके आधार पर मैंने तेरापंथ की शक्ति को बढ़ाने का प्रयत्न किया।
जिस व्यक्ति में उपकारी के प्रति कृतज्ञता के भाव नहीं होते, वह साधना के क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता। प्रमोदभाव व्यक्ति में दूसरों के गुणों के प्रति आकर्षण पैदा करता रहता है। गुरुदेव के इस कृतज्ञ रूप का अंकन आचार्य श्री महाप्रज्ञ इन शब्दों में करते हैं- 'कृतज्ञता का सर्वोच्च उदाहरण है- तुलसी। आचार्य भिक्षु, जयाचार्य व कालूगणी को आज विश्वव्यापी बनाने में यदि किसी को श्रेय है तो वह है गुरुदेव श्री तुलसी को।'
माघ शुक्ला सप्तमी को आचार्य महाप्रज्ञजी का पदाभिषेक समारोह मनाया जा रहा था। अनेक वक्ता पूज्य गुरुदेव एवं आचार्यश्री की अभ्यर्थना