________________
साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२६६ पूज्य गुरुदेव ने आयारो के कुछ सूक्तों का अनुवाद किया जो 'अर्हत् वाणी' के नाम से प्रसिद्ध है। एक दिन एक मुनि ने निवेदन किया'जयाचार्य ने जैसे भगवती आदि सूत्रों पर जोड़ लिखी है वैसे ही यह आयारो
के पद्यानुवाद की अनूठी कृति है।' गुरुदेव ने तत्काल उत्तर देते हुए कहा'कहां जयाचार्य कहां हम! जयाचार्य का पद्यमय साहित्य शब्दानुवाद है और यह अर्हत्वाणी भावानुवाद है। भावानुवाद की अपेक्षा शब्दानुवाद अधिक कठिन पड़ता है। जयाचार्य विलक्षण ज्ञान के भंडार थे, जिन्होंने भगवती जैसे विशाल आगम पर केवल पांच वर्षों में जोड़ पूरी कर दी और हमें उसके संपादन में १५ वर्ष लग गए। साध्वीप्रमुखा का जो श्रम इस कार्य में लगा है, वह अकथनीय है। आज तो हमें अन्य अनेक साधन उपलब्ध हैं लेकिन उस समय ऐसी स्थिति कहां थी?' यह आस्था-बल और कृतज्ञ भाव ही साधक को अपने साध्य तक पहुंचाने में सहयोगी बनता है।
___ गणाधिपति पूज्य गुरुदेव जब अपने आराध्य की स्मृति में गाते या बोलते तो श्रोता आत्मविभोर हो उठते थे। उम्र के नवें दशक में प्रवेश करने के बावजूद उनकी भक्ति उन्हें बालक की निश्छलता प्रदान करती रहती थी। ये उद्धरण उनके इसी रूप को प्रकट करने वाले हैं
*'पूज्य गुरुदेव कालूगणी के वात्सल्य के क्षण आज भी आंखों के सामने थिरकने लगते हैं। सोचता हूं कि वे दिन पुनः लौट आएं तो कितना अच्छा हो, लेकिन वे लौट नहीं सकते। जब-जब मैं निपट अकेला होता हूं, कभी अपने अतीत में पहुंच जाता हूं, तब मुझे लगता है कि न मैं आचार्य हूं, न विद्वान हूं और न महान् हूं। उस समय मैं वही मुनि तुलसी होता हूं, ग्यारह वर्ष का किशोर गुरुचरणों में बैठा हूं, पढ़ रहा हूं, लिख रहा हूं और अपनी पाठशाला में छोटे-छोटे बाल मुनियों को पढ़ा रहा हूं।"
"मैं गुरुदेव की उतनी सेवा नहीं कर सका, जितनी मुझे करनी चाहिए थी। गौतम की महावीर के प्रति, भारीमालजी की आचार्य भिक्षु के प्रति जो श्रद्धा थी, उसकी शतांश भी उस समय मेरे में नहीं थी। आज यदि कोई भी मेरी डायरी के पन्ने उलटकर देखे तो उसे स्थान-स्थान पर श्रद्धा के दर्शन होंगे। 'गुरुदेवः शरणमस्तु'-यह वाक्य बार-बार पढ़ने को मिलेगा। मैं चाहता हूं कि साधु-साध्वियां मेरे अनुभव से लाभ उठाएंगे।"(रीछेड़ ३०/१२/६२)