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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
धवल समारोह पर प्रदत्त निम्न वक्तव्य उनकी निष्काम, निस्पृह एवं उदात्त वृत्ति को प्रस्तुत करने वाला है- "मैं अपने विकास और उत्थान के लिए चला, वह दूसरों के विकास का भी निमित्त बन गया इसलिए लोग मानते हैं कि मैं उनका विकास कर रहा हूं पर मेरा संकल्प है कि प्राप्त प्रतिष्ठा में मैं और अधिक विनम्र बनूं। साधना के पथ पर और आगे बढूं।"
कृत्रिम प्रतिष्ठा एवं पद का व्यामोह व्यक्ति को दिग्मूढ़ बना देता है। पद एवं प्रतिष्ठा के लोलुप व्यक्तियों को मनोवैज्ञानिक शैली में प्रतिबोध देते हुए उन्होंने कहा- ‘पद और प्रतिष्ठा से दूर भागने की कोशिश करोगे तो अनायास वे आपके पीछे दौड़ेंगे। आप 'उनका साथ छुड़ाना चाहकर भी नहीं छुड़ा सकेंगे। यदि पद और प्रतिष्ठा की भूख रखेंगे तो वे आपसे सदा दूर भागेंगे। साधकों की अनुभूति की भाषा एक स्वर में निकलती है अतः स्वामी विवेकानन्द की अनुभूति में भी संवादिता है- 'उसी के पास सब वस्तुएं आती हैं, जो किसी की परवाह नहीं करता। भाग्य एक चपला स्त्री के समान है, जो उसे चाहता है, उसकी वह परवाह ही नहीं करती पर जो व्यक्ति उसकी परवाह नहीं करता, उसके चरणों में वह लोटती रहती है। इसी प्रकार नाम और यश भी अयाचक के पास ढेर के ढेर में आता है। यहां तक कि यह सब उसके लिए एक कष्टप्रद बोझा हो जाता है। विकास महोत्सव का इतिहास इसी तथ्य को चरितार्थ करने वाला था। आचार्य पद त्यागने के बाद सबका आग्रह एवं अनुरोध रहा कि पट्टोत्सव का कार्यक्रम पूर्ववत् मनाना चाहिए। सम्पूर्ण देश से हजारों लोग अपनी श्रद्धा व्यक्त करने आते हैं अतः कार्यक्रम तो होना ही चाहिए। गुरुदेव ने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा- "मैं अपने आचार्य-पद को विसर्जित कर चुका हूं अतः पट्टोत्सव क्यों मनाया जाए? सबकी भावना के बावजूद भी गुरुदेव अपने निर्णय पर अटल रहे। उसी निषेध से आचार्य महाप्रज्ञजी के उर्वर दिमाग में एक विकल्प उभरा 'विकास महोत्सव'। पट्टोत्सव तो आचार्य की सदेह स्थिति में ही मनाया जाता लेकिन विकास महोत्सव हमेशा के लिए स्थायी हो गया।
प्रतिदान या प्रतिफल की भावना से दूर कर्तव्यभाव से प्रेरित होकर कार्य करना उनका जीवनव्रत था। लम्बी यात्राओं के दौरान हर गांव