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साधना की निष्पत्तियां में लोग उनके चरणों में तरह-तरह की भेंट चढ़ाते थे पर वे लोगों से केवल त्याग-प्रत्याख्यान एवं बुराई की भेंट स्वीकार करते थे। (पंजाब) धुरी में वयोवृद्ध सरदार जहांगीरजी गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए। उन्होंने कुछ रुपये भेंटस्वरूप गुरुदेव के चरणों में रखते हुए कहा- 'आपने हमें वचनामृत का पान कराया है। हमारे पास आपको दक्षिणा देने के लिए यह तुच्छ भेंट है अत: आप स्वीकार करें।' गुरुदेव ने सरदारजी को समझाते हुए कहा- 'हम अपना परिवार और धन-सम्पदा छोड़कर साधु बने हैं। पैसा न तो हमारा लक्ष्य है और न इसे साधन रूप में स्वीकार करते हैं।' सरदारजी गुरुदेव की इस निस्पृहता और अनाकांक्षा की वृत्ति से बहुत प्रभावित हुए और भावविभोर होकर बोले- "गुरुजी ! मैंने जीवन में प्रथम बार ऐसे साधु देखे हैं। अभी तक मेरा वास्ता मठाधीशों एवं परिग्रही साधुओं से ही पड़ा था। मुझे विश्वास है कि आप जैसे अपरिग्रही साधु ही भारतीय संस्कृति के गौरव की अभिवृद्धि कर सकते हैं। ये आत्माभिव्यक्तियाँ उनके निष्काम एवं अकिंचन व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक हैं
"मैं कोई मठाधीश या पुजारी नहीं हूं। मेरे पास चढ़ने के लिए मोटर नहीं, पैरों में चप्पल या जूते नहीं। न मैं किसी को संतान देता हूं और न धन देता हूं। न आशीर्वाद या श्राप ही दे सकता हूं। इन बाह्य आडम्बरों में मेरा विश्वास नहीं है।"
*"मैं अकिंचन हूं, गरीब मानें तो सबसे बड़ा गरीब हूँ और अमीर मानें तो सबसे बड़ा अमीर हूं। गरीब इसलिए हूं क्योंकि पूंजी के नाम पर मेरे पास नया पैसा भी नहीं है, अपरिग्रही हूं। अमीर इसलिए हूं क्योंकि मेरी कोई चाह नहीं है।"
. गुरुदेव की निस्पृहता का अमिट प्रभाव पंडित नेहरू पर भी पड़ा। प्रथम मिलन में प्रधानमंत्री ने सोचा कि आचार्यजी अवश्य कुछ मांग करने आए हैं जैसे कि आम लोग उनके पास आते हैं। साक्षात्कार के प्रथम क्षण में ही उन्होंने गुरुदेव तुलसी से पूछा- 'बोलो, आपको क्या चाहिए?' गुरुदेव ने उत्तर दिया- 'पंडितजी! हम यहां लेने नहीं, कुछ देने के लिए आए हैं। हमारे पास सैकड़ों साधु-साध्वियां हैं। देश में नैतिकता एवं चरित्र की प्रतिष्ठा के लिए अगर आप उनका उपयोग करना चाहें तो हमारी