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साधना की निष्पत्तियां अपनी अन्तर्भावना उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त की- "मैं प्रयोगधर्मा रहा हूं। इस छह दशक की अवधि में नए-नए प्रयोग करता रहा हूं। मैंने सोचा मैं अध्यात्म का कोई नया प्रयोग करूं। मैंने आकिंचन्य के प्रयोग का निर्णय लिया, जिससे मेरा कुछ भी न रहे और सब कुछ मेरा बन जाए।"
पूज्य गुरुदेव ने लाखों लोगों को गिरने से बचाया, लाखों पतितों को ऊपर उठाने का प्रयत्न किया तथा लाखों व्यक्तियों को जीवन में कभी स्खलित न होने की अभिनव प्रेरणा दी। लाखों लोग उनके एक इंगित पर अपनी कुर्बानी देने को तैयार रहते तथा उन्हें भगवान् की भांति पूज्य दृष्टि से देखते थे पर वे स्वयं को केवल साधक एवं संत ही मानते थे। एक प्रसंग पर अपनी अन्तर्भावना प्रकट करते हुए उन्होंने कहा- "मैं किसी का गुरु नहीं, मैं तो अपने आपका ही गुरु हूं। अपने विचारों का गुरु हूं।" सन् १९६३ का घटना प्रसंग है। राजलदेसर में एक छोटा सा बालक गुरुदेव के दर्शनार्थ उपस्थित हुआ और बोला- "इतने लोग आपको हाथ जोड़ते हैं तो क्या आप भगवान हैं ?"गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए कहा- 'मैं भगवान् तो नहीं, पर इंसान हूं।' बच्चा तो गुरुदेव का मुंह देखता रहा पर आस-पास खड़े भक्त गुरुदेव के इस उत्तर पर श्रद्धा-प्रणत थे।
__ पूज्य गुरुदेव का विश्वास पुरुषार्थ करने में था। वे परिणाम की चिंता नहीं करते थे यही कारण था कि अपना बहुमूल्य समय दूसरों के लए नियोजित करने पर भी वे किसी पर अहसान या उपकार नहीं जताते बल्कि उसे अपना कर्त्तव्य समझते थे। जब संत उन्हें कहते थे कि साधारण व्यक्ति के लिए आप इतना श्रम क्यों उठाते हैं? क्या वह नियम लेकर सुधर जाएगा? वे इसका उत्तर देते हुए वे कहते थे- 'नियम नहीं लेने से मेरी साधना निष्फल नहीं जाती। कोई नियम लेता है तो उसका हित सधता है। यदि कोई हित-उपदेश न सुने तो भी मेरी साधना सफल है। समझाना मेरा आत्म-धर्म है, वह अपने आपमें सफल है। मेरे उपदेश को यदि एक भी व्यक्ति ग्रहण नहीं करता तो भी मुझे किंचित् हानि और दुःख नहीं होता क्योंकि उपदेश देना मेरी साधना है। वह अपने आप में सफल है। मैं संस्कृत के इस सुभाषित में विश्वास करता हूं
न भवति धर्मः श्रोतुः, सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात्। ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्धया, वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति॥