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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२२६ जितनी निरपेक्षता और अनासक्ति होगी, उतनी ही अधिक उपलब्धि होगी।'
यदि क्रिया के साथ चेतना जुड़ जाती है तो भोजन, पानी, वस्त्र और मकान सभी चीजें आसक्ति के साधन नहीं बनते। आसक्ति बांधने वाला तत्त्व है और अनासक्ति मुक्ति का द्वार है। इस तत्त्व को समझकर पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन में अनासक्ति के अनेक प्रयोग किए। उनकी अनासक्त साधना देहरी का वह दीपक था, जिससे न केवल उनकी आत्मवीथी आलोकित हुई बल्कि उनके निकट रहने वाला हर साधक भी उस प्रकाश से स्वयं को आलोकित अनुभव करता रहा। सहजता
"सहजता के बिना शास्त्रों का अध्ययन विडम्बना बन जाता है और तीर्थ-यात्रा में कोई सार नहीं निकलता इसलिए सहजता ही आत्मदर्शन के लिए आईना बन सकती है"- पूज्य गुरुदेव का यह वक्तव्य उनके सहज व्यक्तित्व की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। सहज साधक घटना को तटस्थ दृष्टि से देखता है। वह उसमें अपने संवेगों को जोड़कर सुखी या दुःखी नहीं होता। जब तक सहजता का विकास नहीं होता, व्यक्ति कभी पदार्थ में अनुरक्त होता है तो कभी व्यक्ति में प्रतिबद्ध होता है। वह बाह्य आकर्षणों में लुब्ध होने के कारण भीतरी आनंद को प्राप्त नहीं कर सकता। पूज्य गुरुदेव का कहना था कि जब तक हम विभाव में रहेंगे, सहजता नहीं आएगी और बिना सहजवृत्ति के आत्मरमण नहीं होगा अतः जितनी सहजता उतना सुख, जितना अहं और बड़प्पन का भाव उतना दु:ख। सुख और दुःख की इस व्याप्ति को समझने वाला व्यक्ति अपने चारों ओर सुख का सागर लहराता देखता है।"
सहज व्यक्ति किसी भी स्थिति में दूसरों पर दोषारोपण नहीं करता। वह अपनी और दूसरों की क्षमता और सामर्थ्य के बीच तालमेल बिठाना जानता है अतः कोई भी विरोधी स्थिति उसे प्रभावित नहीं कर पाती। सन् १९६७ का घटना प्रसंग है। पूज्य गुरुदेव के नवसारी पधारने पर शहर में बहुत सुंदर वातावरण बना। कुछ विरोधी लोगों ने मिथ्या एवं अनर्गल बातों से भरा पत्रों का एक पुलिंदा प्रिंसिपल श्री जे.जे. शुक्ला के नाम से भेजा। श्री शुक्ला विरोधी वातावरण से अनजान थे। उन पत्रों को