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साधना की निष्पत्तियां
हूं।' गुरुदेव ने उस बहिन को समझाते हुए कहा- 'बहिन! हमारा पथ शांति, प्रेम और सहिष्णुता का है। इसलिए हमारे भीतर कभी कमजोरी नहीं आनी चाहिए। जिसके पास जो चीज होती है, वह वही देता है। हमारा कर्तव्य है कि हम समता की भावना का विकास करें, तभी जीवन कलापूर्ण एवं शांतिमय बन सकेगा।
मद्रास प्रवेश का घटना प्रसंग है। गुरुदेव विशाल जुलूस के साथ मद्रास शहर में प्रवेश कर रहे थे। विरोधी लोग बड़ी तीव्रता से नारे लगा रहे थे। उनकी उत्तेजित हरकतों को देखकर युवकों में जोश आना स्वाभाविक था। किन्तु गुरुदेव ने शांति के लिए युवकों को सम्बोधित किया। शांतिपूर्ण प्रेरणा की ही फलश्रति थी कि सभी सदस्य शांत एवं मौन भाव से आगे बढ़ने लगे। एक तरफ की शांति को देखकर विरोधी लोग और अधिक उत्तेजित हो गए। उन्होंने जुलूस को विरोधी हरकतों से भंग करने का प्रयत्न किया किन्तु स्वयंसेवकों ने दोनों ओर मजबूत कतार बना रखी थी। युवकों ने पीछे से धक्कों एवं मुक्कों की मार सही पर शांत बने रहे। उस दिन वातावरण में शांति बनी रहने का एक मात्र कारण था- गुरुदेव का उद्बोधन। वैसी विषम स्थिति में भी युवकों ने शांति एवं शालीनता का परिचय दिया। युवकों की अनुशासनप्रियता देखकर गुरुदेव के मुख से अनायास निकल पड़ा, ऐसे अनुशासित युवकों पर हर किसी को गौरव हो सकता है। मैं जब युवकों की ऐसी शांति एवं शालीनता देखता हूं तो मुझे सात्त्विक गर्व हुए बिना नहीं रहता।'
___ आचार्य महाप्रज्ञ का मानना है कि साम्ययोग में वही रह सकता है, जो आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है, आत्मा की सन्निधि पा जाता है। कोई व्यक्ति आत्मा की अनुभूति किए बिना समता की साधना नहीं कर सकता। जहां बाहरी वातावरण है, वहां परिस्थिति की अनुकूलता-प्रतिकूलता का चक्र चलता रहता है, वहां समता की सिद्धि नहीं हो सकती। सुखदुःख, संयोग-वियोग आदि जो बाहरी निमित्त हैं, उनके परे जाकर जो आत्मा और चैतन्य का अनुभव करता है, वही समता की साधना कर सकता है। जहां आत्मा है, वहां विषमता नहीं है। जहां आत्मा है, वहां उतार-चढ़ाव नहीं है। जहां आत्मा है, वहां कोई मलिनता नहीं है। जो