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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी जिस व्यक्ति ने उदार हृदय से इतना विष निगलकर हजम कर लिया, वह जरूर आधुनिक युग का शंकर है। विरोध का प्रतिकार विरोध से नहीं किया, वह व्यक्ति अवश्य ही कोई शक्तिसम्पन्न एवं सामर्थ्यवान् होना चाहिए। यही देखकर मुझे आपके पास आने की प्रेरणा मिली।' पज्य गुरुदेव विरोधियों का प्रतिकार करने का प्रयास नहीं करते, किन्तु उनकी सहिष्णुता एवं समता से स्वत: विरोध का प्रतिकार हो जाता था। काव्य की निम्न पंक्तियों में वे सबको यही प्रेरणा देते हैं
सहें विरोध विनोद समझ, यह वीरों का वीरत्व मिला। जीवन को आलोकित करने, वाला अभिनव तत्त्व मिला।
सामान्य घटना-प्रसंग से अधीर होने वाले अनुयायियों को भी वे साम्ययोग का प्रशिक्षण देते रहते थे। प्रशिक्षण का क्रम कभी प्रवचन के रूप में चलता तो कभी लेखन के रूप में प्रकट होता था। कभी-कभी व्यक्ति को सम्बोधित करते हुए तो कभी-कभी पद्य के रूप में। यहां साम्ययोग को प्रकट करने वाली कुछ प्रेरणाएं एवं घटनाएं उद्धत की जा रही हैं, जो हरेक व्यक्ति को सक्रिय प्रशिक्षण देने वाली हैं
"जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि पाने की कला का नाम हैसाम्ययोग। आप लोग बहत्तर कलाओं में कुशल बनें या न बनें पर एक साम्ययोग की कला को सीख लें तो वास्तविक कलाकार बन सकते हैं।"
* "मैं पूँजीपति या शक्तिशाली को बड़ा नहीं समझता, मैं बड़ा उसे मानता हूं, जो वैमनस्य को मिटाने के लिए पहल करता है। वह फिर चाहे साधारण स्थिति वाला ही क्यों न हो, हर परिस्थिति में समता रखने वाला सामने वाले को झुका लेगा, हृदय-परिवर्तन कर देगा और गति को मोड़ देगा।"
मेरी हरकत सहे सहज वह, मैं भी उसकी क्यों न सहूं। साथी रूप निभाना है तो, सहिष्णुता के साथ रहूं॥
१९७२ की घटना है। एक बहिन गुरुदेव के पास आकर दिलगीर होने लगी। वह डबडबाई आंखों से गुरुदेव से बोली- 'लोग जब आपके विरोध में बोलते हैं, अपशब्दों का प्रयोग करते हैं तो वह मैं नहीं सुन सकती। मेरा धैर्य सीमा तोड़ देता है। उस समय मैं असन्तुलित बन जाती