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साधना की निष्पत्तियां
इतना लिखने के बावजूद आपके मन में मेरे प्रति कोई वैमनस्य का भाव नहीं उभरा?' गुरुदेव ने शांतभाव से उत्तर देते हुए कहा- "मेरा विरोध करने वालों को विरोध करने से यदि कुछ प्राप्त होता है तो मुझे संतोष है। मेरा संकल्प है- 'चाहे कोई मेरी निन्दा करे, आलोचना करे या आक्षेप भी करे तो भी मुझे अपने समता धर्म को नहीं छोड़ना है। मुझे अपने हृदय में किसी के प्रति घृणा, जुगुप्सा या वैमनस्य के भाव को नहीं उभरने देना हैइस समता के संकल्प ने ही मुझे संतुलित और स्थिर रहना सिखाया है।'
___मद्रास प्रवास में साम्प्रदायिक अभिनिवेश के कारण गुरुदेव का घोर विरोध हुआ। अश्लील एवं भद्दे पेम्पलेट छापे गए। इस अवसर पर अन्य धर्मावलम्बी गुरुदेव के पास आए और प्रश्नों की लम्बी श्रृंखला प्रस्तुत कर दी- 'आचार्यजी! आपका इतना विरोध क्यों होता है ? विरोध की स्थिति में आपके मानस की क्या स्थिति रहती है ? क्या विरोधों को देखकर आपका मानस विचलित नहीं होता?' प्रश्नों का उत्तर देते हुए गुरुदेव ने कहा- 'मैं सोचता हूं कि ये हमारा विरोध नहीं कर रहे हैं बल्कि अपनी सुरक्षा का प्रयत्न कर रहे हैं। गाय किसी अपरिचित को देखकर उसके सामने अपने सींग दिखाती है। गाय को उस व्यक्ति से द्वेष नहीं होता किंतु अपनी सुरक्षा के लिए वह ऐसा करती है। इसी प्रकार हमारा विरोध भी अपनी सुरक्षा के लिए किया जाता है। उन्हें भय है कि कहीं हमारे अनुयायी आचार्यजी के पास न चले जाएं। विरोधी लोगों द्वारा यदि गलत बातें न फैलाई जाती तो हमारे पास किसी की इच्छा होती तो आता किन्तु भ्रांति फैलाने से तो लोग अधिक आकृष्ट होकर आते हैं। इससे तो हमारा प्रचार और अधिक बढ़ता है अतः एक दृष्टि से वे हमारे उपकारी हैं। दाम और समय स्वयं का व्यय करते हैं और काम हमारा करते हैं।'
काका कालेलकर, शिवाजी भावे आदि अनेक प्रबुद्ध व्यक्ति तेरापंथ एवं गुरुदेव के बारे में प्रचारित विरोधी साहित्य एवं पेम्पलेट देखकर ही उनके निकट आए। एक बार शिवाजी भावे ने गुरुदेव के पास आकर कहा- 'आपके विरोध में प्रचारित पुलिन्दा मेरे पास पहुंच गया।' मैंने सोचा- "दूसरी ओर से भी इसके प्रतिकार स्वरूप कुछ आना चाहिए, लेकिन आपकी ओर से प्रतिकार स्वरूप कुछ भी प्रकाशित नहीं हुआ।