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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२१४ महान हैं। मुझ जैसे व्यक्ति को भी आपने वात्सल्य दिया और संसार-समुद्र से तार दिया।
___ अपनी सीमा को विस्तार देने से पूर्व गुरुदेव ने अपने मानस को इस रूप में प्रशिक्षित कर लिया था कि यदि कुछ कार्य करेंगे तो विरोध होगा। विरोध सहे बिना गति नहीं हो सकती। विरोध के सामने विरोध लेकर बढ़ेंगे तो विरोध बढ़ेगा और यदि उसको पीठ देकर अपना कार्य करते रहेंगे तो वह विरोध अपने आप खत्म हो जायेगा।' इस उन्नत चिंतन के सशक्त अवलम्बन ने उन्हें हमेशा आगे बढ़ने की प्रेरणा दी और वे विषम स्थितियों एवं विरोधों को टालने में सफल हुए। 'यपुर एवं चूरू के घटना-प्रसंग इसके प्रबल साक्ष्य हैं। ।
___ यहां कलकत्ता का एक घटना-प्रसंग प्रस्तुत करना असमीचीन नहीं होगा, जो उनके उत्कृष्ट साम्य-योग को प्रकट करके छिछले स्तर के व्यक्तियों को गंभीरता की नयी प्रेरणा देने वाला है। कलकत्ता के दैनिक पत्र विश्वबंधु में सात महीनों तक तेरापंथ के विरोध में अनर्गल बातें छपी। जब पूज्य गुरुदेव का कलकत्ता से प्रस्थान होने वाला था, उस समय विश्वबंधु के संपादक अवधकिशोर सिंह गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए। गीली आंखों के साथ वे गुरु-चरणों में क्षमा मांगने लगे। अनुनय भरे शब्दों में उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की और आशीर्वाद मांगा। गुरुदेव ने कहा- 'मैंने दुराशीष और श्राप कब दिया था, जो आपको आशीर्वाद मांगने की जरूरत पड़ी।' गुरुदेव के इन वचनों को सुनकर वे संकोच का अनुभव करने लगे। गुरुदेव ने उनको समाहित करते हुए कहा- 'आपने अपने पत्र में एक पृष्ठ हमारे लिए निश्चित रखा। चार महीनों तक जी भर कर निंदा लिखी, अनर्गल संवाद प्रकाशित किए, उस समय भी हमने आपके प्रति दुर्भावना नहीं की, धैर्य नहीं छोड़ा, सहिष्णुता नहीं छोड़ी, क्या यह आशीर्वाद नहीं है? यदि यही बात आप किसी अन्य पर लिखते तो शायद परिणाम दूसरा ही होता। आज भी यदि आपका हृदय पसीजा है तो समझना चाहिए कि सुबह का भटका मानव शाम को घर आ गया। मैं उस समय भी अपनी समता साधना में था और आज भी अपनी साधना में हूं। आपके प्रति मुझे कोई रोष नहीं है।' पत्रकार ने पुनः पूछा- 'विरोध में