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साधना की निष्पत्तियां
व्यवस्थापक एक बार निराश हो गए पर तत्काल दूसरे स्थान की खोज में लग गए। उनके प्रयत्न से मोरवी नरेश का विशाल राजमहल उपलब्ध हो गया। राजमाता उस समय बम्बई थीं पर उन्होंने फोन पर सहर्ष अपने स्थान पर रुकने की अनुमति दे दी। स्थानक से भी अच्छा एवं सुविधाजनक स्थान मिल गया। गुरुदेव के मन में न स्थानक वालों के प्रति रोष प्रकट हुआ और न ही राजमहल में रहने की अतिरिक्त प्रसन्नता या गर्व की अनुभूति हुई।
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आज तक जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनका इतिहास पढ़ने से प्रतीत होता है कि विरोधी पक्ष ने उनको जितनी प्रसिद्धि दी, उतनी उनके अनुयायियों ने नहीं । पूज्य गुरुदेव का जीवन संघर्षों का जीवन रहा । अंतरंग और बहिरंग दोनों संघर्षों को जिस शांतभाव से उन्होंने सहा, वह इतिहास का दुर्लभ दस्तावेज है। गुरुदेव तुलसी ने विरोध को हमेशा विनोद के रूप में स्वीकार किया। कट्टर से कट्टर विरोधी के प्रति भी वे कभी कटु नहीं बनते थे। वे कहते थे- 'मुझे सद्भावना और सहिष्णुता का दृष्टिकोण पसन्द है अतः जिन लोगों ने मेरे साथ अशिष्ट एवं गलत व्यवहार किया है, उनके प्रति मैं सद्भावना व्यक्त करता हूं और यही कामना करता हूं कि उन लोगों में भी सद्बुद्धि आए।' गुरुदेव के इसी विधायक एवं सन्तुलित चिंतन ने घोर विरोधी एवं आलोचक व्यक्तियों को भी एक दिन प्रशंसक बना दिया । लाडनूं के एक श्रावक थे सूरजमलजी बोरड़ । अनेक विशेषताओं के साथ उनमें आलोचना की वृत्ति बहुत प्रबल थी । वे लोगों के बीच तेरापंथ धर्मसंघ एवं गुरुदेव की कटु आलोचना करते थे। उनके कारण अनेक व्यक्तियों की श्रद्धा डांवाडोल हो गयी। जीवन के अन्तिम क्षणों में वे बीमार हो गए। उन दिनों गुरुदेव लाडनूं में विराजते थे । उनका व्याख्यान नोहरे में होता था। जब सूरजमलजी ने व्याख्यान में गुरुदेव को गाते हुए सुना तो उनका मानस बदल गया । उन्होंने गुरुदेव को दर्शन देने के लिए निवेदन करवाया। गुरुदेव बिना किसी पूर्वाग्रह के अपने प्रति विरोध उगलने वाले व्यक्ति को दर्शन देने पधारे। गुरुदेव के पधारने से वे भाव-विभोर हो गए और आत्मग्लानि करते हुए बोले- 'गुरुदेव ! मैं नीच हूं, पापी हूं, जीवन भर आपकी और धर्मसंघ की आलोचना करता रहा लेकिन आप