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________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी २१२ घटना-प्रसंग गुरुदेव के श्रीचरणों में प्रस्तुत किया। घटना सुनने के बाद गुरुदेव ने गंभीर होकर पूछा- 'क्या मुकदमा सच्चा था?' पटेल ने कहा'बिल्कुल सच्चा था।' गुरुदेव ने सावधान करते हुए कहा- 'कहीं मेरे नाम से असत्य को प्रोत्साहन मत दे देना।' यह एक वाक्य ही साधक और असाधक के बीच भेदरेखा खींचने में पर्याप्त है। साधारण व्यक्ति इस बात को सुनकर फूलकर कुप्पा हो जाता कि मेरे नाम से ऐसा चमत्कार घटित हुआ। वैसे भी साधारण और महान् पुरुषों के बीच कोई स्थूल रेखा खचित नहीं होती पर चिंतन की दृष्टि से साधारण और महान् व्यक्ति में धूप-छांव जितना अन्तर होता है। आत्म-निरीक्षण करने वाला साधक ही समता की सम्यक् साधना कर सकता है। दूसरों को देखने वाला व्यक्ति पग-पग पर विक्षेप का अनुभव करता है। आत्मदर्शन एवं परदर्शन के संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का यह मंतव्य मननीय है- 'साम्ययोग के लिए अपेक्षित है-स्वयं का दुर्बल पक्ष देखना और संसार का सबल पक्ष देखना।' प्रायः मनुष्य दूसरे का दुर्बल पक्ष एवं स्वयं का सबल पक्ष देखता है पर साम्ययोग के लिए इस क्रम को बदलना आवश्यक है।' साम्ययोग का फलित है- अव्यथ होकर हर प्रतिकूल परिस्थिति को अपने अनुकूल बना लेना। गुरुदेव के जीवन से सम्बन्धित ऐसी सैकड़ों घटनाओं को उद्धृत किया जा सकता है; जब प्रतिकूल परिस्थिति को उनके साम्ययोग ने अनुकूलता के रूप में अंगीकार किया। वे मानते थे कि अब तो मेरी प्रकृति ही ऐसी हो गयी है कि किसी भी व्यथा में मैं विचलित नहीं होता। उनकी स्पष्ट अवधारणा थी कि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में सम रहने वाला साधक ही आगे बढ़ सकता है। परिस्थिति से घबराने वाला व्यक्ति जीवन-रण में हार जाता है। दक्षिण यात्रा के दौरान गुरुदेव मोरवी पधारे। वहां स्थानीय जैन समाज के आग्रह पर गुरुदेव का प्रवास स्थानक में निश्चित किया गया। जैन समाज में सौहार्द बढ़े, इस दृष्टि से यात्रा-व्यवस्थापकों ने उस स्थान पर ठहरने का निर्णय मान्य कर लिया। ८ जून, १९६७ को गुरुदेव मोरवी पधारने वाले थे पर ७ जून को लोगों ने स्थान देने से इन्कार कर दिया।
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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