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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२१८ आत्मा की अनुभूति कर लेता है, उसके लिए समता की साधना पृथक् नहीं होती। पूज्य गुरुदेव सतत आत्मा का अनाहत नाद सुनते रहते थे अतः समता की साधना उनके लिए सहज साध्य थी। अनासक्ति
सत्य के द्वार को उद्घाटित करने में आसक्ति सबसे बड़ी बाधा है। वह चाहे शरीर पर हो या मन पर, धन पर हो या पूजा प्रतिष्ठा पर, तनाव एवं दुःख ही देती है। भोगासक्त व्यक्ति किसी उदात्त लक्ष्य के साथ नहीं जुड़ सकता क्योंकि उसकी चेतना बार-बार बाहर की ओर दौड़ती है। आसक्ति को परिभाषित करते हुए पूज्य गुरुदेव संगान करते हैं
संग, मूर्छा और ममता, बस यही आसक्ति है। साम्य, समता, सहजता, वैराग्य की अभिव्यक्ति है।
इंद्रिय-विषयों का प्रयोग आसक्ति नहीं है पर उसमें चेप, लगाव या मूर्छा होने से वह क्रिया आसक्ति बन जाती है। अनासक्त व्यक्ति खाता है, पीता है, पहनता है पर उसमें रस नहीं लेता। वह पदार्थ का भोग नहीं, केवल उपयोग करता है। आसक्त व्यक्ति पदार्थ का भोग न करने पर भी उसमें बंध जाता है। पदार्थ के प्रति उसकी दृष्टि उपयोगिता प्रधान न होकर भोग प्रधान होती है। आसक्ति अनासक्ति के सूक्ष्म रहस्य को पूज्य गुरुदेव आगम के आलोक में स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'व्यवहार में भोजन को ही भोग मान लिया जाता है। निश्चय दृष्टि के अनुसार भोजन भोग नहीं है। भोग है भोजन के प्रति होने वाली आसक्ति। जिस व्यक्ति में आसक्ति होती है, वह भोगी है। इसका फलित यह है कि भोगी भोग कर सकता है। अभोगी कभी भोग नहीं करता। भोगी भमइ संसारे'- चूंकि भोगी भोग करता है, इसलिए संसार में परिभ्रमण भी वही करता है। भोग छूटते ही संसार छूट जाता है।'
भगवान् महावीर ने आसक्ति से मुक्त होने के लिए एक सूत्र दिया- "तम्हा संगं ति पासहा" अर्थात् अपनी आसक्ति को देखो। देखने वाला साधक किसी पदार्थ का उपभोग करते हुए भी उसमें आसक्त नहीं हो सकता। पूज्य गुरुदेव महावीर-वाणी का अनुवाद करते हुए कहते