SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१९ साधना की निष्पत्तियां पश्यक द्रष्टा का प्रयोग जो, साधारण जन वस्तु भोग जो, दोनों में अंतर है इतना 'धा' मां सुत - लालन में जितना अनासक्ति की अकथ कहानी । आयारो की अर्हत् वाणी ॥ गीता का यह पद्य भी आसक्ति परिहार का सुन्दर क्रम प्रस्तुत करता है विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः । निवर्तते ॥ रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा अर्थात् इंन्द्रिय-विषयों का भोग न करने से विषय तो छूट जाते हैं से पर पदार्थ के प्रति रस या आसक्ति परम अर्थात् भीतर के सौन्दर्य को देखने छूट सकती है। वह व्यक्ति कभी आत्मरमण या परम का दर्शन नहीं कर सकता, जो विषयासक्त है। पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि अध्यात्म की प्रबलता ही आसक्ति को दुर्बल बना सकती है । अनासक्ति के रथ पर आरूढ़ होने वाला आत्मिक सुख को प्राप्त कर सकता है। पूज्य गुरुदेव की संकल्प शक्ति इतनी प्रबल थी कि वे अपने मन को किसी भी विषय में आसक्त नहीं होने देते थे । वे इस सत्य को स्वीकार करते थे कि आसक्ति का धागा इतना सूक्ष्म है कि वह पकड़ में नहीं आ सकता पर गुरु के सही मार्गदर्शन से आसक्ति को देखने की कला प्राप्त हो जाती है । सन् १९६८ का घटना प्रसंग है। पूज्य गुरुदेव को मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञजी) आहार करवा रहे थे । मुनिश्री रोटियां परोसने के लिए उन्हें उलट-पलट कर देख रहे थे । उन्होंने एक रोटी, 'यह कच्ची है' ऐसा कहकर अलग रख दी। दूसरी जब परोसने लगे तो तत्काल बोले 'यह जी हुई है। यह भी ठीक नहीं है।' मुनिश्री नथमलजी ने तीसरी रोटी पात्र में रख दी और स्वयं शान्त भाव से बैठ गये । जब रोटी पूरी होने वाली थी तब उन्होंने सहज भाव से गुरुदेव से पूछा- 'यह तो ठीक है ?' गुरुदेव ने फरमाया- 'यदि मन में समता और अनासक्ति हो तो सब ठीक है। तुम्हारे द्वारा तीन बार रोटी बदलने पर भी रोटी आई वह..... ।' मुनिश्री चौंककर
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy