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साधना की निष्पत्तियां और भ्रष्ट होकर औरों का हित साधने की प्रक्रिया का मैं कभी समर्थन नहीं कर सकता।" उनके मुख से निःसृत काव्य की ये पंक्तियां आत्मोदय से प्राप्त सुख और आनन्द की स्पष्ट अभिव्यक्ति है
आत्मपक्ष के सम्मुख, सभी लक्ष्य फीके लगते हैं। मिथ्या मानदंड उन्नति के, खुद को ही ठगते हैं।
पूज्य गुरुदेव क्रांत कवि थे, सृजनशील साहित्यकार थे, कुशल वक्ता थे, मधुर संगायक थे पर इन सबसे पहले वे आत्म-साधक थे। साधना के समक्ष उनके सामने सारी प्रवृत्तियां अकिंचित्कर थीं। वे कहते थे- 'आत्मभाव का तिरस्कार कर यदि साहित्य का सृजन या प्रकाशन होता है तो मुझे वह प्रिय नहीं है। मैं मानता हूं साहित्य की साधना, विद्या की आराधना और शास्त्रों का अन्वेषण बहुत आवश्यक है पर इससे भी अधिक अपेक्षित है अपनी आत्मा की साधना, आराधना और अन्वेषणा। इसके लिए आत्म-निरीक्षण, आत्म-परीक्षण और आत्म-संशोधन की त्रिपदी स्वीकार कर ली जाए तो सत्य की उपलब्धि का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। 'पंचसूत्रम्' में उनकी लेखनी से यही शाश्वत स्वर मुखर हुआ है
मुमुक्षुत्वमिदं पुण्यं, न च ग्रन्थादिलेखनम्। फलोपमं तदेतत् स्यात्, मूलं फलै विशिष्यते॥
अग्निपरीक्षा पुस्तक वापस लेने पर साहित्यकारों तथा कुछ मनीषी संतों ने गुरुदेव को निवेदन किया कि इतने सुन्दर प्रबंधकाव्य को वापस लेकर आपने साहित्यजगत् के प्रति न्याय नहीं किया है। एक सुन्दर साहित्यिक कृति से विद्वानों को वंचित कर दिया, यह साहित्य-जगत् का अपमान है। पूज्य गुरुदेव ने उन्हें समाहित करते हुए कहा- 'मैं पहले अहिंसा का साधक संत हूं, फिर साहित्यकार हूं। यह निर्णय मैंने बाध्य होकर नहीं, अपितु अहिंसक होने के नाते शांति स्थापना के उद्देश्य से कर्त्तव्य समझकर किया है। जहां अहिंसा का प्रश्न है, वहां हमारा आचरण और व्यवहार अलौकिक ही होना चाहिए- इस सिद्धान्त में मेरी गहरी आस्था है। मैं चाहता हूं कि यह आस्था व्यापक बने।'
___सामान्य व्यक्ति ईंट, मिट्टी एवं चूने से बने मकान को अपना घर मानता है किन्तु आत्म-ज्ञान होने के बाद व्यक्ति के अपने घर की परिभाषा