________________
साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१६८ भी प्रगति यदि साधना में अवरोधक बनती तो वह उन्हें अभिप्रेत नहीं थी। साधना को गौण करके युगप्रवाह में बहने के वे कट्टर विरोधी थे। गुरुदेव तुलसी संघ का बहुमुखी विकास चाहते थे किन्तु आत्मपक्ष को गौण करके नहीं। वे कहते थे मेरे सामने अनेक कार्य हैं। सबसे पहला कार्य हैअपनी साधना। आध्यात्मिक विकास मेरी साधना का लक्ष्य है। मैं जहां कहीं भी रहूं और कुछ भी करूं, इस लक्ष्य को विस्मृत नहीं कर सकता।"
पूज्य गुरुदेव के जागृत आत्मबोध का रेखांकन महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी इन शब्दों में करती हैं- "उन्होंने कभी रुकना नहीं सीखा, हटना नहीं सीखा, मुड़ना नहीं सीखा, लौटना नहीं सीखा। उनका पुरुषार्थ उनके फौलादी व्यक्तित्व की जीवंत कहानी है। किन्तु एक बिन्दु पर आकर वे रुकते हैं, हटते हैं, मुड़ते हैं और वापिस भी लौट जाते हैं। वह बिन्दु है- आत्म-बोध। जिस क्षण उन्हें यह अहसास हो जाता है कि अमुक रास्ता अस्तित्व-बोध की मंजिल तक नहीं जाता तो वे तत्काल रुक जाते हैं।" ..
__ पूज्य गुरुदेव की दृष्टि में साधुत्व का पहला लक्ष्य है- आत्मसाधना अर्थात् स्व को केन्द्र में रखकर परिधि का विकास किया जाए, जिससे साधना तेजस्वी बने। 'व्यवहार-बोध' में साधना को प्राथमिकता देने का अवबोध देते हुए वे कहते हैं
प्रथम व्यक्तिगत साधना, गणविकास सायास। सार्वजनिक कल्याण फिर, जब भी हो अवकाश॥
साधना को गौण करके किए गए विकास को वे ह्रास की संज्ञा देते थे। युग के बदलते प्रवाह एवं भौतिकता के रंग को देखकर वे अत्यंत चिंतित थे। उनका धर्मसंघ युग-प्रवाह में अपने अस्तित्व को न भूल जाए, इसके लिए वे सतत जागरूक थे। अनेक बार प्रवचनों के माध्यम से वे अंतरंग परिषद की चेतना झंकृत करते रहते थे- "मैं प्रगति चाहता हूं पर इस बात का ध्यान रहे कि हम अपने अस्तित्व को भूलकर युग-प्रवाह में न बह जाएं। हमें अपनी अध्यात्म साधना को सदा जागृत रखना है और साधना में उत्कर्ष लाने के लिए नये-नये प्रयोग करते रहना है। मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ पर आचार की कमी मेरे लिए असहय है। खुद पतित