________________
साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२८४ साथ पुरुषार्थ के प्रति निष्ठा होना आवश्यक है अन्यथा वह साधना के किसी भी क्रम को नियमित रूप से नहीं चला सकता। पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि कठिनाइयों को चीरकर आगे बढ़ने का संकल्प पुष्ट होता है तो व्यक्ति अन्धकार को देखकर रुकता नहीं है, वह स्वयं दीपक बनकर दूसरों को पथ दिखाता है। इस बात की पुष्टि में पूज्य गुरुदेव का यह अनुभव उन्हीं के शब्दों में पठनीय है- 'मैं साधु बना, उस समय मेरी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। मैं अधिक पढ़ा-लिखा नहीं था इसलिए विशेष नहीं जानता था। किन्तु इतना अवश्य जानता था कि मुझे कुछ बनना है। क्या बनना है ? कैसे बनना है ? इन प्रश्नों की गहराई में जाने की जरूरत नहीं हुई। गुरुदेव के चरणों में रहकर कुछ बनना है, इस मानसिक संकल्प ने ही मुझे गुरुचरणों में पहुंचाया। गुरुदेव ने मुझे कुछ बनाने का संकल्प किया। उन दो संकल्पों के योग से मैं यहां तक पहुंचा हूं। मैं बहुत बार सोचता हूं कि मैं पहुंच सकता हूं तो अन्य लोग क्यों नहीं पहुंच सकते? इच्छाशक्ति और संकल्पशक्ति पुष्ट हो तो साधारण दीखने वाला व्यक्ति भी अपने गंतव्य तक पहुंच जाता है। अपेक्षा है प्रस्थान से पहले लक्ष्यनिर्धारण की।'
जिस व्यक्ति की कथनी और करनी में समानता होती है, वह व्यक्ति संकल्पशक्ति का विकास कर लेता है। इसके अतिरिक्त आत्मनियंत्रण, कष्ट-सहिष्णुता एवं एकाग्रता- ये तीन तत्त्व संकल्पशक्ति को प्रबल बनाते हैं। इनके अभाव में संकल्प की तदाकार परिणति संभव नहीं है। पूज्य गुरुदेव को ये तत्त्व जन्मजात प्राप्त थे अत: उनकी संकल्पशक्ति इतनी प्रबल थी कि हजारों कठिनाइयों में भी उनका मनोबल कभी विचलित नहीं हआ। वे अनेक बार अपने अनुभव को व्यक्त करते हुए कहते थे'मैं कभी-कभी नया निर्णय करने में विलम्ब कर देता हूं पर निर्णय लेने के बाद अपने भीतर चट्टान जैसी दृढ़ता पाता हूं।' अनेक बार लोग उनके संकल्पबल की दृढ़ता को देखकर चमत्कृत हो जाते। गुरुदेव की दृढ़ इच्छाशक्ति के कुछ घटना-प्रसंग यहां प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा।
सन् १९७७ का चातुर्मास लाडनूं में था। शारीरिक अस्वस्थता के कारण लाडनूं में ९ मास का प्रवास हुआ। विहार की संभावना नहीं थी पर