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साधना की निष्पत्तियां
का अनुभव नहीं करता। मुझे लगता है दिन-प्रतिदिन मेरी प्रसन्नता बढ़ रही है, मुझमें अधिक ताजगी और तारुण्य आ रहा है । मेरी साधना की स्फूर्ति मेरे हर स्वप्न को साकार बनाने में लगी हुई है। मैं साधना के माध्यम से अपनी मानसिक प्रसन्नता को अक्षुण्ण बनाए रखना चाहता हूँ । '
पूज्य गुरुदेव यदि किसी के चेहरे को बुझा-बुझा या उदास देखते तो तत्काल उसे प्रफुल्ल एवं प्रसन्न रहने की प्रेरणा देते थे । उनकी प्रेरणा की एक झलक यहाँ प्रस्तुत की जा रही है - 'मुस्कान जीवन की कला है । जो मुस्कराना जानता है, वही जीना जानता है । मुस्कान के अभाव में जीवन का फूल मुरझा जाता है । मैं अपने लिए मुस्कराहट को बहुत अधिक मूल्यवान मानता हूँ। मैं स्वयं प्रसन्न रहना चाहता हूँ और अपने परिपार्श्व को प्रसन्न देखना चाहता हूँ। मेरी यह इच्छा रहती है कि मेरे निकट रहने वाला व्यक्ति हर क्षण प्रफुल्ल रहे ।' सरदारशहर में पूज्य गुरुदेव समाचारपत्र का अवलोकन कर रहे थे । मुखपृष्ठ पर पांच-सात अपरिचित व्यक्तियों की मुखाकृतियां चित्रित थीं । गुरुदेव ने आसपास बैठे शैक्ष साधुओं को प्रतिबोध देते हुए कहा- 'देखो ! ये व्यक्ति कितने प्रसन्न हैं ? सचमुच प्रसन्नता भी जीवन का एक महान् गुण है। यह प्रकृति का अनुपम वरदान है । यह सबके लिए है पर आश्चर्य है, सब इसके लिए नहीं होते। इसका वरण वही कर सकता है, जो सामंजस्य को जानता है । मुझे उदासी कभी अच्छी नहीं लगती। मेरे सामने यदि किसी की खिन्न या उदास आकृति आ जाती है तो मन में एक वेदना होने लगती है । "
प्रसन्न रहने वाला साधक अनेक कठिनाइयों को सहज ही पार कर देता है। महावीर कहते हैं कि शत्रुता का भाव रखने वाला प्रसन्न नहीं रह सकता इसलिए मानसिक प्रसन्नता साधना की निष्पत्ति ही नहीं अपितु उसमें सहायक भी है। गुरुदेव की तीव्र अभीप्सा थी कि साधना के द्वारा आनन्द-प्राप्ति के ऐसे स्रोतों की खोज की जाए जिससे कोई भी समस्या व्यक्ति को दुःख न दे सके। विपरीत परिस्थिति या मानसिक संवेग व्यक्ति के मानस को उद्वेलित न कर सकें। आनंद-प्राप्ति की तीव्र तड़प उनकी डायरी के पन्नों में पठनीय है- 'आज आत्म-विद्या या आनंद-प्राप्ति के गुर लुप्त हैं । हमारा धर्मसंघ उसकी खोज में लगा हुआ है । मैं स्वयं भी इसके लिए प्रयत्नशील हूं। कुछ तथ्य उपलब्ध हुए भी हैं पर उपलब्धि की