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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२४४ मानसिक प्रसन्नता जितनी अधिक रहेगी, सफलता उतना ही सन्निकट रहेगी। इसलिए साक्षीभाव से हर परिस्थिति को पार करना चाहिए।
परिस्थितियों में स्वाभाविक रूप से सहज मुस्कान बिखेरते रहना गुरुदेव का जीवन-क्रम बन गया था। सहज आनन्द उनके रोम-रोम से टपकता था। उदासी या मायूसी को वे अपने पास फटकने भी नहीं देते थे। व्यथा का उनके साथ दूर का भी कोई रिश्ता नहीं था। ये विचार उनके इसी प्रसन्न व्यक्तित्व की अभिव्यक्तियां हैं
* मैं आज भी अपने आपको पूरी तरह से तरोताजा अनुभव करता हूं। मेरी इस ताजगी का रहस्य है-प्रसन्नता। यदि मैं प्रसन्न रहना नहीं जानता तो जी नहीं सकता। मैं आप सबसे कहना चाहता हूँ कि यदि आप युवा रहना चाहते हैं, दीर्घजीवी होना चाहते हैं तो प्रसन्न रहना सीखिए। व्यथित रहकर जीना भी कोई जीना है। मैं एक वर्ष जीऊं. पांच वर्ष जीऊं या पचास वर्ष जीऊं, इसकी मुझे चिन्ता नहीं है। मैं जितना जीऊं प्रसन्नता और आनन्द से जीऊं, यही मेरी चाह है।'
* मनुष्य के लिए अनेक वस्तुएं प्राप्तव्य हैं। उनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है- आनंदोपलब्धि। मेरी दृष्टि में आनंद से बढ़कर कोई प्राप्तव्य नहीं है। यदि हम आनंदयुक्त जीवन जीते हैं तो हमारा जीवन कलात्मक है अन्यथा वह पशु जीवन से अधिक मूल्यवान नहीं कहा जा सकता।
* दुनिया वैभव में सुख मानती है पर हम आकिंचन्य में सुख का अनुभव करते हैं। दुनिया बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में सुख मानती है पर हम टूटे झोंपड़े में आनंद पा लेते हैं। दुनिया भूख से डरती है पर हम भूखे रहकर भी आनन्द की अनुभूति करते हैं।'
भावना से अनुप्राणित साधक को कोई भी स्थिति खिन्न या उद्वेलित नहीं कर सकती। पूज्य गुरुदेव ने धर्मक्रान्ति के रूप में जनता के समक्ष इसी तथ्य को प्रकट किया- "भले एक व्यक्ति मंदिर, मस्जिद न जाए, पूजा-पाठ न करे पर कषाय उपशांत रखे, भाव-विशुद्धि रखे और निषेधात्मक भावों से बचता रहे तो वह धार्मिक हो सकता है। उसकी प्रसन्नता को कोई छीन नहीं सकता।" अपना अनुभव बताते हुए उन्होंने यही कहा- "मैं भाव-विशुद्धि का प्रयोग कर रहा हूं इसलिए बुढ़ापा, बीमारी आदि स्थितियां मुझे सताती नहीं। इसी कारण मैं वेदना या व्यथा