________________
२४३
साधना की निष्पत्तियां
धोखाधड़ी, शोषण जैसी अवांछनीय प्रवृत्ति करने के बाद कहे कि मैं क्या करूं? ईश्वर की जैसी मर्जी। अच्छे-बुरे सब कार्य कराने वाला भगवान है अत: मैं उनका फल भी उन्हीं को समर्पित करता हूं। यह अकर्त्ताभाव या अकर्म की साधना नहीं, बल्कि सिद्धांत का दुरुपयोग है।' कर्तृत्व के अहं से दूर रहकर वृत्तिसंशोधन की ओर प्रयाण करना ही अकर्म साधना का प्रतिफल है। पूज्य गुरुदेव स्पष्ट शब्दों में कहते थे कि मैं परिणाम की अपेक्षा प्रवृत्ति की पवित्रता का चिंतन अधिक करता हूँ।
___ साधना के क्षेत्र में कर्म के साथ अकर्म की साधना भी आवश्यक है। अकर्म रहना आलस्य या प्रमाद नहीं, अपितु एक प्रकार की भीतरी सक्रियता है। हार्ट के रोगी को संपूर्ण विश्राम का परामर्श दिया जाता है। लेकिन यह विश्राम भीतरी सक्रियता के लिए होता है। भगवान् महावीर भी इसी भाषा में बोलते हैं कि "न कम्मुणा कम्म खवेइ बाला, अकम्मुणा कम्म खवेइ धीरा" अर्थात् कर्मों का क्षय कर्म से नहीं, अकर्म से ही संभव है। कायोत्सर्ग अकर्म साधना का मुख्यद्वार है। पूज्य गुरुदेव की कायगुप्ति इतनी सधी हुई थी कि देखने वाले आश्चर्यचकित रह जाते थे। उम्र के नवें दशक में ६-६ घण्टे एक ही आसन में बिना हलचल के वे स्थिर बैठे रहते थे जबकि सामान्य व्यक्ति के लिए आधा घंटा स्थिर बैठना भी कठिन होता है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन में कर्म और अकर्म दोनों को सापेक्ष मूल्य दिया था। कर्म को उन्होंने वृत्ति-संशोधन के साथ जोड़कर उसे अकर्म के रूप में परिणत करने का प्रशस्त प्रयत्न किया था। सहजानंद की अनुभूति
. साधक हर स्थिति में आनंद-निमग्न रहता है। सदा प्रसन्न रहने वाला साधक प्रतिकूल-अनुकूल परिस्थिति से प्रभावित होकर खिन्नता या प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता। समयं तत्थुवेहाए, अप्पाणं विप्पसायए', महावीर की यह आर्षवाणी सदैव उनकी स्मृति-पटल पर तैरती रहती थी। पूज्य गुरुदेव के जीवन में विरोधों के अनेक आंधी-तूफान आए। उच्चस्तरीय प्रशंसा एवं प्रशस्ति के क्षण भी उपस्थित हुए पर उनकी मुखाकृति पर न वेदना के चिह्न देखे गए और न अतिरिक्त प्रसन्नता के। उनका अनुभव था कि अधिक प्रसत्ति और अधिक विषाद दोनों ही साधना में बाधक तत्त्व हैं।