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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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पाठ पढ़ना चाहते हैं। प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति का संतुलन ही हमें विभीषिका से बचा सकता है।' पूज्य गुरुदेव ने अर्हद्-वाणी में प्रवृत्ति और निवृत्ति के संतुलन को बहुत सुन्दर शब्दों में गुम्फित किया है—
सहयायी बन सदा निवृत्ति प्रवृत्ति रही है, धूप-छांह की संरचना क्या सही नहीं है ? फिर निश्चय व्यवहार क्यों नहीं साथ चलेगा ? दोनों से ही संयम तप उद्यान फलेगा ॥
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हिसार में एकांतवास के अवसर पर गुरुदेव से प्रश्न पूछा गया कि आप अत्यधिक व्यस्त रहते हैं अतः एकांतवास की इस लम्बी अवधि में आपको कुछ विचित्रता की अनुभूति नहीं हुई? पूज्य गुरुदेव ने उत्तर देते हुए कहा- 'व्यस्तता मेरा स्वभाव बन गया है। इस प्रयोगकाल से पहले मैं व्यस्त था बाद में भी संभवतः व्यस्त रहूंगा और वर्तमान में भी उतना ही व्यस्त हूं। आज भी मेरी व्यस्तता मिटी नहीं है । उसका मार्गान्तरीकरण अवश्य हुआ है। जिनका व्यस्त रहने का अभ्यास है, उन्हें अपने सामने काम चाहिए, फिर वह किसी प्रकार का क्यों न हो? मेरी पहले की व्यस्तता जन-सम्पर्क में अधिक थी, अब वह एकांत अनुष्ठान में परिणत हो गई है। खाली बैठने की मुझे आदत नहीं है, वह पहले भी नहीं थी और आज भी नहीं है । " गुरुदेव के मस्तिष्क में "कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः " गीता का यह पद्य अनुगुंजित होता रहता था ।
" योगिनः कर्म कुर्वन्ति, संगं त्यक्त्वात्मशुद्धये" इस सूक्त को ध्यान में रखते हुए पूज्य गुरुदेव कर्म करते हुए भी आसक्ति और कर्तृत्व के अहं से परे थे । यही कारण है कि कोई भी कर्म का फल उन्हें बेचैन नहीं बनाता था। जहाँ कर्त्ताभाव जुड़ जाता है, वहाँ निश्चय ही फलाशंसा भी व्यक्ति को बांध देती है। गीता का 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' तथा दशवैकालिक का 'नन्नत्थ निज्जरट्ठाए' आदि वाक्य सदैव उनके मानस पटल पर तरंगित होते रहते थे अतः उनका कोई भी कर्म प्रतिदान या प्रतिफल की भावना से संपृक्त नहीं होता था। पूज्य गुरुदेव के अभिमत से कर्त्ताभाव से दूर रहने का तात्पर्य यह नहीं था कि व्यक्ति कोई गलत कार्य करे और उसका दायित्व अपने ऊपर न ले। मिलावट,