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साधना की निष्पत्तियां क्रियाओं को छोड़कर मन को यायावर बनाए रखना अकर्म में कर्म का प्रयोग है। गीता में भी इसी सत्य का उद्घाटन हुआ है कि जो व्यक्ति कर्म में अकर्म तथा अकर्म में कर्म को देखता है, वही प्रज्ञावान् है।" इस संदर्भ में महात्मा गांधी का मंतव्य भी उल्लेखनीय है- "एक स्थिति ऐसी होती है, जब मनुष्य को विचार प्रकट करने की आवश्यकता नहीं रहती। उसके विचार ही कर्म बन जाते हैं, वह संकल्प से कर्म कर लेता है। ऐसी स्थिति जब आती है, तब मनुष्य अकर्म में कर्म देखता है।"
निवृत्ति के बाद जो प्रवृत्ति होती है, उससे चेतना के केन्द्र में विस्फोट होता है अतः प्रवृत्ति की तेजस्विता और सक्रियता के लिए निवृत्ति आवश्यक है। इसी सत्य का संगान अध्यात्म पदावली में हुआ है--
क्रिया-अक्रिया का युगल, जीवन का चिर सत्य। वही क्रिया है सत्क्रिया, जहां अक्रिया तथ्य॥
कोरा कर्म आदर्शों को निष्क्रिय बना देता है अतः प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति की साधना भी अत्यन्त अपेक्षित है। समिति के साथ गुप्ति का संतुलन होना आवश्यक है। जो कर्म के बाद अकर्म का अनुभव नहीं करता, उसकी कर्मशक्ति कुंठित हो जाती है। निरंतर धड़कने वाला हृदय भी विश्राम करता है। गति और स्थिति, आहार और अनाहार, भाषा और मौन-ये सब जीवन के साथ जुड़े हुए हैं। पूज्य गुरुदेव ने कर्म में अकर्म . की साधना को साधने का प्रयत्न किया था। इतने बड़े संघ का संचालन करने के बावजूद भी वे प्रतिक्षण एक द्रष्टा की भांति स्थिरयोगी ही दिखाई पड़ते थे। उनके किसी क्रिया-कलाप में अधीरता, आसक्ति या चंचलता के दर्शन नहीं होते थे। उनकी हर क्रिया संयम से अनुप्राणित थी अतः उनका जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति के संतुलन का प्रतीक था। बाह्य दर्शन में वे हरपल कर्मप्रवृत्त दिखाई देते थे लेकिन भीतर की स्थिरता उनको प्रतिक्षण अकर्म की अनुभूति कराती रहती थी!
पटना विश्वविद्यालय में गुरुदेव का स्वागत किया जा रहा था। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने स्वागत भाषण बोलते हए कहा- 'आज की सबसे बड़ी समस्या है- प्रवृत्ति का अतिवाद । प्रवृत्ति के अतिवाद ने हमें अणुअस्त्रों के युग तक पहुँचा दिया है अतः हम आपसे निवृत्ति का