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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२४० अकर्म नहीं बन सकता। गीता के अनुसार- 'न हि देहभृतां कश्चित् त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः' अर्थात् कोई भी प्राणी संपूर्ण रूप से कर्ममुक्त नहीं हो सकता। इस सन्दर्भ में पूज्य गुरुदेव का यही चिंतन था कि मेरी समझ में कर्म करना जितना सरल है, अकर्म रहना उतना ही कठिन है। कठिन ही नहीं, सक्रियता से सर्वथा मुक्त होना असंभव है क्योंकि मानसिक, वाचिक एवं कायिक कर्म का निरोध तो हो सकता है पर आध्यात्मिक सक्रियता शैलेशी या सिद्धावस्था में भी समाप्त नहीं होती। वहां कोई दृश्य क्रिया भले ही न हो पर चेतना की स्वाभाविक क्रियाशीलता अनवरत चालू रहती है।' स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- 'प्रवृत्ति के केन्द्र में मैं' रहता है। जब 'मैं' का भाव घटने लगता है, तभी निवृत्ति का उदय होता है।'
___ यदि वृत्ति संशोधित हो जाए, कषाय और आसक्ति के भाव को कम कर दिया जाए तो कर्म भी अकर्म बन जाता है। संशोधित वृत्ति वाला व्यक्ति कर्म करता हुआ भी बंधन से मुक्त रहता है। पूज्य गुरुदेव का मानना था कि दीमक की तरह हजारों पुस्तकें चाट जाने से या गधे की भांति चंदन का भार ढोते रहने से कोई लाभ नहीं है, यदि कर्म स्वच्छ नहीं बने।' इसीलिए पूज्य गुरुदेव ने अपने कर्म को परिमार्जित एवं परिष्कृत करने का प्रयत्न किया था। गीता का "योगः कर्मसु कौशलम्" सूक्त उनके जीवन में पूर्णतया घटित होता था। गुरुदेव की ये अभिव्यक्तियां भी इसी तथ्य की संपुष्टि करने वाली हैं
* हमें निष्क्रिय नहीं, अपितु क्रिया करते-करते अक्रिय बनना है।
* कर्म में मेरी रुचि है। मैं चाहता हूं कि अकर्म के साथ अन्तिम श्वास तक कर्मशील बना रहूं।
कर्मशील व्यक्ति स्वस्थ और प्रसन्न रह सकता है, इस विश्वास के साथ मैं सतत निर्माण कार्य में लगा रहता हूं और प्रसन्नता का अनुभव करता हूं।
साधनाकाल में यदि साधक अकर्म में कर्म और कर्म में अकर्म देखने का अभ्यास कर ले तो समस्या का समाधान हो सकता है पर यह स्थिति अभ्यास से प्राप्त होती है। एक कर्म के अतिरिक्त बाकी सब कर्मों की विस्मृति कर्म में अकर्म की साधना है। इसी प्रकार ऊपर से सब