SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३९ साधना की निष्पत्तियां आप स्वयं आचार्यश्री से क्यों न कर लें? वे तैयार हो गये। हम लोग गये। काफी देर तक बातचीत होती रही। लौटते समय उस सज्जन ने मुझसे कहा- 'यशपालजी! तुलसीजी महाराज की एक बात की मुझ पर बड़ी अच्छी छाप पड़ी है।' मैंने पूछा- 'किस बात की? बोले, 'देखिये, 'मैं. बार-बार अपने मतभेद की बात उनसे कहता रहा, लेकिन उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। एक शब्द भी उन्होंने जोर से नहीं कहा।शक्तिसम्पन्न होने पर भी दूसरे के विरोध को इतनी सहनशीलता से सुनना और सहना आसान बात नहीं है।' इस घटना के संदर्भ में पूज्य गुरुदेव का यह सम्बोध असहिष्णु एवं शक्तिहीन लोगों को नयी प्रेरणा देने वाला है- "मजबूरन तो सारा संसार ही सहन करता है। पर वह सहन करना वस्तुतः सहन करना नहीं है। वह तो एक प्रकार की कायरता है और कड़े शब्दों में कहा जाये तो हिंसा है। सच्ची वीरता तो इसमें है कि प्रतिकार करने की शक्ति रखने के बावजूद भी 'सहन करना मेरा आत्मधर्म है'-ऐसा चिंतन कर व्यक्ति शांत और सहिष्णु रहे, यही सच्ची सहिष्णुता या क्षमा है।' - पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन के प्रसंगों से सहिष्णुता को जीवन्त बनाया। उन्हें सहिष्णुता का प्रतिरूप कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी क्योंकि उन्होंने प्रकृति और पुरुष दोनों को सक्षम होकर सहा और दिनकर की इन पंक्तियों को साकार किया क्षमा शोभती उस भजंग को, जिसके पास गरल हो। उसको क्या जो दंतहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो॥ कर्म और अकर्म में संतुलन साधक के समक्ष कर्म और अकर्म तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति का द्वंद्व सदैव बना रहता है। श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्म और अकर्म की व्याख्या में विद्वान लोग भी दिग्मूढ़ बन जाते हैं। गीता में उन्होंने विस्तार से इसकी चर्चा की है। तीसरे अध्याय में कर्म और अकर्म के बीच सन्तुलन स्थापित करने का सुन्दर प्रयत्न हुआ है न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। न च संन्यसनादेव, सिद्धिं समधिगच्छति॥ अकर्म बनना साधक का लक्ष्य है लेकिन कोई भी साधक सहसा
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy