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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२८८ इतिहास के पृष्ठ बताते हैं कि यह पहला ही अवसर था जब गुरुदेव ने परिषद् के सम्मुख अपने संकल्पों को दोहराया। इन संकल्पों ने उपस्थित जनमेदिनी को प्रभावित किया क्योंकि वाणी तभी जादू बनती है, जब वह आचरण के साथ बाहर निकलती है।
जैन समाज शक्तिसम्पन्न और वैभवसम्पन्न होते हुए भी टुकड़ों में बंटा हुआ है। इस बात की गुरुदेव के मन में बहुत पीड़ा थी। उन्होंने जैन समाज की एकता, अखंडता और समन्वय के लिए बहुत प्रयत्न किए। अपने ५१वें जन्मदिवस पर जनता के समक्ष अपनी भावना व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- 'प्रगति के बाधक तत्त्वों का निराकरण कर आगे बढ़ने का संकल्प दोहराएं- यही जन्मदिन मनाने की सार्थकता है। बीकानेर के जैन समाज के समक्ष मैं अपने अग्रिम वर्ष के लिए तीन संकल्प दोहराना चाहता
-
सपा
* संवत्सरी पर्व एक हो। * जैनों का एक प्रतिनिधि संगठन हो। * महावीर की निर्वाण सदी सभी सम्प्रदायों द्वारा मिलकर मनाई
जाए।'
ये तीन संकल्प जहां उनकी उदारता एवं विराटता को अभिव्यक्त करते हैं, वहां उनके असाम्प्रदायिक दृष्टिकोण की व्यापकता भी प्रस्तुत करते हैं। इसके साथ ही व्यक्तिगत साधना को तेजस्वी बनाने हेतु उन्होंने इन संकल्पों का उच्चारण किया
* नौ द्रव्यों से अधिक न खाना। * तली हुई वस्तुएं न खाना। . * ५० वर्ष बाद दिन में लेटकर नींद ले सकते हैं पर अग्रिम वर्ष
में सहजतया दिन में लेटकर नींद नहीं लेना। * भिक्षा के निमित्त किसी के घर नहीं जाना।"
सन् १९६५ में ५२वां जन्मदिन भारत की राजधानी दिल्ली के ऐतिहासिक स्थल में मनाया गया। हजारों की उपस्थिति में गुरुदेव श्री तुलसी ने फरमाया- "बहुत बार मेरे मन में विकल्प उठता है कि मेरे