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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२७४ समय चाहिए।' मैंने सहज भाव से कहा- 'बोलो, क्या कहना है?' वह रुआंसा होकर बोला- 'मेरा क्या अपराध हो गया? आप मुझे माफ कर दें।' मैं उसकी ओर देखता रह गया। उसके जीवन में क्या घटित हुआ था, मुझे मालूम नहीं था। न वह अधिक परिचित था और न उसकी कोई शिकायत ही मेरे पास थी। मैंने उसे आश्वस्त करते हुए कहा- "क्या हुआ? मेरे ध्यान में कोई बात नहीं आ रही है।' वह गद्गद होता हुआ बोला- 'कल मैंने आपके दर्शन किए, आपने मेरी ओर देखा ही नहीं। मैं यहां से चला गया, पर मेरी आत्मा अपराध-बोध से आहत हो गई। जरूर कोई भयंकर अपराध हुआ है, अन्यथा गुरुदेव वन्दना स्वीकार क्यों नहीं करते? यही विचार मेरे मस्तिष्क में चक्कर काट रहा है, अब इस तनाव से छुटकारा पाने आपके चरणों में उपस्थित हुआ हूं।'
___ मैंने एक गहरी निगाह उस पर डाली। सचमुच ही उसका मन बेचैन था। उसके भ्रांत मन को शांत करने के लिए मैंने कहा- 'तुम्हारी कोई गलती नहीं है। तुम सही हो। प्रमाद तो मेरी ओर से हुआ है। मेरे मन में कोई दूसरा विचार नहीं था। तुमने वन्दना की तब मेरा ध्यान कहीं अन्यत्र होगा, इसी कारण तुम्हारे मन में यह भ्रांति हुई है।' मैंने प्रसन्नतापूर्वक उसकी ओर देखा, वह कृतार्थ हो गया। एक क्षण देखने से जो चमत्कार हुआ, उसका मैंने प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया। क्षणिक दर्शन से जब इतना बड़ा काम हो सकता है तो गहरे में उतरकर देखने से क्या नहीं होगा? अपेक्षा इतनी ही है कि जो व्यक्ति बदलाव चाहता है, वह ज्ञाता-द्रष्टा बने। ज्ञाता-द्रष्टा बनकर ही व्यक्ति कुछ बन सकता है।'
. महावीर कहते हैं कि "उद्देसो पासगस्स नत्थि" अर्थात् द्रष्टा के लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती। द्रष्टा आत्मानुशासन की उस स्थिति में पहुंच जाता है, जहां बाह्य अनुशासन कृतार्थ हो जाता है। बचपन में ही पूज्य गुरुदेव ने अपने गुरु कालूगणी के अनुशासन को कृतकृत्य कर दिया। जिस बात के लिए एक बार निर्देश या प्रतिबोध मिल गया फिर दुबारा उसके बारे में उन्हें निर्देश देने की अपेक्षा नहीं रही। यहां उनके मुनि जीवन के कुछ घटना-प्रसंग प्रस्तुत किए जा रहे हैं
मुनि तुलसी की दीक्षा के तत्काल बाद कालूगणी ने सुजानगढ़ के लिए विहार कर दिया। उस समय मुनि तुलसी मात्र ११ वर्ष के थे।