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साधना की निष्पत्तियां सुजानगढ़ में पूज्य कालूगणी जब पंचमी पधारते तो बाल मुनि तुलसी आगे-आगे चलते। जंगल में ऊंचे-ऊंचे रेतीले टीले थे। एक दिन मुनि तुलसी टीले से सीधे उतर कर कालूगणी के पास आए। कालूगणी ने फरमाया- 'टीले से कैसे उतरा है? यह कोई तरीका है चलने का? ईर्यासमिति इसे कहते हैं ? नीचे हरियाली होगी तो?' मुनि तुलसी ने बाल सुलभ चपलता से कहा- 'वहां हरियाली नही है।' कालूगणी उस समय मौन रहे, लेकिन उनके वापस जाने का रास्ता उसी टीले के नीचे से था। वहां पहुंचते ही कालूगणी ने फरमाया- 'तुलसी! देख कितनी हरियाली
है। आज तुमने दो गलतियां कीं। पहली गलती देखकर नहीं चले, दूसरी - अपनी गलती को गलती नहीं माना। पूज्य गुरुदेव संस्मरणों के वातायन'
में कहते हैं कि वह डांट और अमृत भरी सीख साधु-जीवन की यात्रा में मील का पत्थर बन गयी।" फिर जीवन पर्यन्त उनके जीवन में ईर्यासमिति में स्खलना का प्रसंग संभवत: नहीं आया।
__ वि.सं. १९८२ का मर्यादा महोत्सव राजलदेसर में था। मुनि तुलसी सायंकालीन प्रतिक्रमण कर पूज्य कालूगणी के पास वन्दनार्थ पहुंचे। पास में मंत्री मुनि मगनलालजी स्वामी विराज रहे थे। उन्होंने कहा- कैसे प्रमार्जन करते हो? चिड़िया उड़ानी है क्या? गुरुदेव (मुनि तुलसी) को यह अच्छा नहीं लगा उन्होंने प्रत्युत्तर देते हुए कहा- 'मैं तो अच्छे ढंग से प्रमार्जन करते हुए चल रहा था।' इस संस्मरण को लिखते हुए गुरुदेव कहते हैं कि वहां से जाने के बाद मुनि चंपालालजी (सेवाभावी) ने मुझे जो डांट पिलाई, उसे मैं आज तक नहीं भूला हूं। उन्होंने कहा- 'तुम कुछ समझते ही नहीं हो। मुनि मगनलालजी आचार्यों की दूसरी देह हैं। उनके सामने कैसे बोले? तुम्हें बोलने का थोड़ा भी ध्यान नहीं है। तुम्हें पता है तुम क्या बोले?' भाईजी महाराज के कहने पर मुनि तुलसी ने अपनी भूल स्वीकार कर अविनय के लिए क्षमायाचना की। पूज्य गुरुदेव उस समय की स्मृति करते हुए कहते हैं- 'मुनि चम्पालालजी के उपालम्भ ने मेरे जीवन में नई जागृति ला दी। उस दिन के बाद मैंने कभी प्रमार्जन में गलती नहीं की।'
द्रष्टाभाव से शरीर में प्राण का संतुलन बढ़ता है। पीड़ित अवयव