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अध्यात्म के प्रयोक्ता
सकता है। पूज्य गुरुदेव के शब्दों में आत्मानुशासन जगाने के लिए अनुप्रेक्षा का यह क्रम उपयोगी बन सकता है- 'मेरा मन मेरे हाथ में नहीं है। मेरी इंद्रियों पर मेरा अधिकार नहीं है। मैं स्वतंत्र कहां हूं? जब तक मन और इन्द्रियां मेरे अधीन नहीं होंगी, मैं इनका यंत्र बना रहूंगा। यंत्र बनकर जीने वाला जीवन का आनंद कैसे पा सकता है ? इस अनुचिंतन या अनुप्रेक्षा के द्वारा अस्सी प्रतिशत व्यक्तियों में बदलाव की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।'
भगवान् महावीर ने मुख्यत: १२ भावनाओं का प्रतिपादन किया। उनमें एकत्व, अन्यत्व, अनित्य एवं अशरण- ये चार भावनाएं मुख्य हैं। पूज्य गुरुदेव समय-समय पर इन भावनाओं से अपने आपको भावित करते रहते थे अतः आगमों में मुनि के लिए प्रयुक्त 'भावियप्पा' विशेषण उन पर पूर्णतया चरितार्थ होता था।
'मैं अकेला हूं'; 'हर संयोग का अन्त वियोग में होता है'- इस सच्चाई से भावित आत्मा को कोई दुखी नहीं बना सकता। परिवार, जाति, समाज, संप्रदाय या राष्ट्र से जुड़ने वाला आंतरिक आसक्ति के कारण प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न होते ही विक्षिप्त हो जाता है अतः समूह में रहते हुए अकेला रहना बहुत बड़ी कला है। पूज्य गुरुदेव समूह में जीते थे पर हर क्षण एकत्व की अनुभूति से अनुस्यूत रहते थे। अपने हाथों से दीक्षित अनेक अंतेवासी शिष्य उनके देखते-देखते स्वर्गवासी हो गए पर उस स्थिति में भी उनको मानसिक विचलन की अनुभूति नहीं हुई। उनकी संसारपक्षीया माँ (वदनांजी), भाई (चम्पालालजी स्वामी), बहिन (महासती लाडांजी), मंत्री मुनि मगनलालजी स्वामी, बाल मुनि कनक आदि अनेक व्यक्ति देखते-देखते विलीन हो गए पर वे उन सब स्थितियों में स्थिरयोगी दिखाई पड़े। वे मानते थे कि जितने भी बाह्य सम्बन्ध हैं, वे सब स्थापित हैं, कल्पित हैं। स्थापित सम्बन्धों को सहज मानकर उनमें ममत्व रखना स्वयं को दुःखी बनाना है। संयोग-वियोग के चक्र में शांतिपूर्ण जीवन वही व्यक्ति जी सकता है, जिसने अपनी आत्मा को भावित किया हो या प्रतिपक्षी अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास किया हो।
उनके जीवन में अनुप्रेक्षा का प्रयोग इतना आत्मगत हो गया था