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साधना के
`शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
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ध्यान के दौरान साधक अनेक अनुभवों से गुजरता है, उन अनुभवों को प्रकट करना संभव नहीं होता। वे अनिर्वचनीय और अवक्तव्य होते हैं । गुरुदेव का जीवन खुली किताब था अतः उनके जीवन में छिपाव जैसी चीज थी ही नहीं । सन् १९६१ की डायरी में लिखा गया उनका ध्यान का अनुभव पठनीय है- 'आज केशलोच हुआ। मैंने अपना दैनिक ध्यान का समय समझ पद्मासन लगाकर ध्यान कर लिया। सिर का आधे से ज्यादा लोच ध्यान में हुआ। अच्छा आनन्द आया । आईन्दा भी ऐसा करने का मन हुआ । सहिष्णुता बढ़ी। मेरी प्रवृत्ति इधर में सहजतया ध्यान आदि की तरफ आकृष्ट हो रही है।'
पूज्य गुरुदेव को ध्यान करना नहीं पड़ता, सहज होता था । विनोबा भावे से पूछा गया- 'आप ध्यान कब करते हैं ?' उन्होंने उत्तर दिया' यह पूछो कि मैं ध्यान कब नहीं करता ? मैंने जीवन की हर क्रिया के साथ ध्यान को जोड़ने का प्रयत्न किया है।' पूज्य गुरुदेव भी ध्यान कब नहीं करते, ऐसे क्षण खोजने पर भी मिलने कठिन थे क्योंकि उनकी अप्रमत्तता, समता, एकाग्रता और भावक्रिया की साधना इतनी सध चुकी थी कि आत्मा की विस्मृति के क्षण बहुत कम उपस्थित होते थे। उनकी हर क्रिया ध्यानयोग से अनुप्राणित थी । यही कारण है कि उनका चलना, फिरना, बोलना, बैठना एवं सोना सब ध्यान बन गया था ।
अनुप्रेक्षा का प्रयोग
साधना के क्षेत्र में रूपान्तरण का एक बहुत महत्त्वपूर्ण साधन है - अनुप्रेक्षा । आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में अनुप्रेक्षा मस्तिष्कीय धुलाई की प्रक्रिया है । अनुप्रेक्षा एवं भावना में विस्फोटक शक्ति होती है। इसके सम्यक् या असम्यक् प्रयोग से बुरी वस्तु अच्छी तथा अच्छी वस्तु बुरी बन सकती है। मीरा ने जहर का प्याला पीया लेकिन भावना की शक्ति से उसने उसे अमृत में परिवर्तित कर दिया। अनुप्रेक्षा 'अनुरागाद् विरागः ' का सिद्धान्त है। इसमें प्रतिपक्ष भावना के द्वारा वैभाविक प्रवृत्तियों को ध्वस्त किया जा सकता है।
आत्मानुशासन जगाने में अनुप्रेक्षा एक सशक्त कड़ी बन सकती है । विशिष्ट विचार - पद्धति से मन और आत्मा को स्वाधीन बनाया जा