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अध्यात्म के प्रयोक्ता
ध्यान का अनिवार्य घटक है। ध्यान से निष्पन्न रूपान्तरण परिस्थितिजन्य या बाध्यता से प्रेरित नहीं होता वरन् स्वतः होता है इसलिए वह स्थायी और सुखद होता है। ध्यान के बिना निर्मलता, स्वस्थता और स्थिरता की कल्पना ही असंभव है।' ध्यान से उद्भूत निम्न विशेषताएं पूज्य गुरुदेव के व्यक्तित्व के साथ तदाकार हो गई थीं- स्थितप्रज्ञता, संकट में धैर्य, सापेक्ष चिंतन, संयम की शक्ति का विकास, दृढ़ संकल्प, सहजानंद का उदय आदि।
___ ध्यान व्यक्ति को परिस्थिति के झंझावातों से अप्रभावित रहने की शक्ति देता है। जीवन में आने वाले उतार-चढ़ावों में ध्यानी व्यक्ति का धैर्य नहीं डोलता। कठिनाइयों को झेलने तथा खतरों को मोल लेने की अद्भुत क्षमता उसमें देखी जा सकती है। परिस्थिति से अप्रभावित रहने की जो अप्रतिम क्षमता पूज्य गुरुदेव में थी, वह अन्यत्र दुर्लभ है। चित्त की यह सघनता उन्हें ध्यान की एकाग्रता से प्राप्त हुई, यह नि:संकोच कहा जा सकता है। वे तटस्थ भाव से घटना को जानते-देखते, पर उसके साथ बहते नहीं। पूज्य गुरुदेव का अनुभव था कि ध्यान अपने आप में विनम्रता का प्रयोग है, अनाग्रह का प्रयोग है। ध्यानकाल में अहं टूटता है, विनम्रता बढ़ती है और अनाग्रह विकसित होता है।'
___ ध्यान आंतरिक क्रांति है। यह जमे हुए विकृत संस्कारों को उखाड़ने की प्रक्रिया है। ध्याता के सामने ध्यान के समय अनेक प्रकार के संस्कार उभरते हैं, यदि ध्याता के मन में किसी प्रकार का भय या प्रलोभन होता है तो संस्कारों के आक्रमण से सामान्य साहस वाला व्यक्ति भयभीत होकर ध्यान को छोड़ देता है। अथवा ध्यान से प्राप्त होने वाली तैजसशक्ति के चमत्कारों को देखकर दिग्मूढ़ हो जाता है किन्तु उन संस्कारों का सामना करने वाले व्यक्ति की चेतना राग-द्वेष से मुक्त होकर निर्मल एवं पवित्र हो जाती है। चंचलता के कारण ध्यान से भय खाने वाले लोगों को प्रतिबोध देते हुए पूज्य गुरुदेव कहते थे- 'जिस व्यक्ति का चित्त चंचल है, वह चाहकर भी ध्यान नहीं कर पाता। जिसका चित्त स्थिर है, उसके लिए ध्यान की कोई उपयोगिता नहीं है, इस प्रकार का चिंतन एकांगी है। एकांगी दृष्टि रखने वाला व्यक्ति ही यह कह सकता है कि जब तक मेरा मन स्थिर नहीं हो जाता, मैं ध्यान नहीं करूंगा। ध्यान के प्रति गहरी आस्था और दृढ़ संकल्प से चित्त की चंचलता को मिटाया जा सकता है।'