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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
पूज्य गुरुदेव सृजन के देवता थे। उनका हर स्वर सृजन का संगीत था। हर संकेत सृजन का आलोक था। उन्होंने अपने जन्मदिन को केवल प्रशस्ति का समारोह न बनाकर उसे संकल्पों के द्वारा रचनात्मक एवं सृजनात्मक रूप दिया। पिछले अनेक वर्षों तक वे अपने जन्मदिन को अणुव्रत दिवस के रूप में मनाते रहे। इस दिन तेरापंथ धर्मसंघ का सर्वोच्च पुरस्कार "अणुव्रत पुरस्कार" की घोषणा भी की जाती थी। जीवन के सांध्यकाल में उनके संकल्प वैयक्तिक न होकर व्यापक अधिक होते थे। उनके संकल्प की धुरी पर पूरी मानव जाति केन्द्रित रहती थी। ६३वें जन्मदिन पर जनमेदिनी को सम्बोधित करते हुए उन्होंने संकल्प ग्रहण किए
* प्रेक्षाध्यान का संघ में अधिक से अधिक विकास। * वैयक्तिक स्तर पर प्रेक्षा का नियमित अभ्यास। * आगम-संपादन के कार्य में नियमितता। * प्रतिदिन दो घंटा मौन। * खाद्य संयम के विशेष प्रयोग।
६७वें जन्मदिन पर उनकी दृढ़ संकल्पनिष्ठा ने एक नए संन्यास की सृष्टि की। समण श्रेणी का महान् अवदान इसी दिन जिन-शासन की सेवा में समर्पित हुआ। समण श्रेणी के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने कहा- 'इस नयी श्रेणी की स्थापना आचार्य तुलसी जैसे दृढ़ मनोबली आचार्य ही कर सकते हैं। अनेक आचार्य इस बारे में सोचते हैं पर कर नहीं पाते। कुछ नया करने का श्रेय आचार्य तुलसी के संकल्प-बल को ही जाता है। मैं उनकी संकल्प-निष्ठा और अप्रमत्तता से बहुत प्रभावित हूं।'
६९वें जन्मदिन पर पूज्य गुरुदेव की नींद जल्दी ही खुल गई। संतों ने पुनः लेटने का निवेदन किया लेकिन गुरुदेव ने फरमाया-"अब उठने के बाद क्या सोना? संतों को प्रेरणा देकर गुरुदेव ने अपने भावी जीवन के लिए संकल्प प्रस्तुत किए
* यह वर्ष मेरे लिए शुभ हो। * अध्यात्म मेरे जीवन का आदर्श बना रहे।