SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी ३०६ अस्तित्व टिक नहीं पाता था। वे स्वयं इस बात को अंगीकार करते थे'समस्या हो और समाधान न हो, इस बात में मेरी आस्था नहीं है। समस्या किसी भी क्षेत्र की हो, उसका समाधान अवश्य है। उसे खोजने वाला चाहिए।" मेरा विश्वास है कि डटकर मुकाबला करने से बड़ी से बड़ी समस्याएं अपने आप मार्ग से हट जाती हैं। इसी आस्था से पूज्य गुरुदेव ने सैकड़ों-हजारों समस्याओं को समाधान तक पहुंचाया था। ___ लाडनूं का घटना प्रसंग है। महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी एक घर गोचरी हेतु पधारीं । बहिन ने भक्तिपूर्वक निवेदन किया- 'महाराज! यह रस्सी उलझी हुई है पर मजबूत है। यदि साधु-साध्वियों के काम आ जाए तो मैं निहाल हो जाऊंगी। महाश्रमणीजी ने उस बहिन की भावना को साकार कर दिया। वे रस्सी लेकर गुरुदेव के उपपात में पहुंचीं। उन्होंने गुरुदेव को करबद्ध निवेदन किया- 'अगर यह रस्सी संतों के काम आ जाए तो हम इसे सुलझा दें।' पास खड़े संतों ने स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया। नवदीक्षित साध्वियां रस्सी को सुलझाने में दत्तचित्त हो गईं। महाश्रमणीजी ने साध्वियों से कहा- 'थोड़ी रस्सी मुझे भी दे दो, मैं भी सुलझाऊंगी।' थोड़ी ही देर में बहुत सारी रस्सी सुलझ गई। सुलझी हुई रस्सी को देखकर गुरुदेव ने वहां उपस्थित साधु-साध्वियों को शिक्षा देते हुए कहा- "जीवन की हर समस्या को इसी तरह उत्साह और संतुलन से सुलझाना सीखो। समस्या का समाधान करने के लिए आकाश से कोई देवता नहीं आएगा, पृथ्वी पर ही किसी को भगवान् बनना होगा।' पूज्य गुरुदेव का यह प्रतिबोध सबके लिए जीवन का विशेष पाथेय बन गया। . गुरुदेव के संतुलित व्यक्तित्व की ही फलश्रुति थी कि समाधायक होने का अहं उनके मन में कभी पनप नहीं पाया। वे कहते थे- 'मैं सारे संसार को सुखी एवं समाहित करने की अतिकल्पना नहीं करता तो कुछ न कर सकने की दीनता भी मेरे मन में नहीं है। हीनता और गर्व के बीच मैं सदैव मध्यस्थ एवं संतुलित रहना चाहता हूं।' पूज्य गुरुदेव के जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आए पर उनका मानसिक संतुलन कभी नहीं बिगड़ा। कोई भी असत् विचार या व्यवहार उनको स्पर्श नहीं कर सका क्योंकि वे इस सत्य को स्वीकार करके चलते
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy