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अध्यात्म के प्रयोक्ता
प्रयोग किए । यद्यपि इन सबका विधिवत् इतिहास सुरक्षित नहीं रह सका, फिर भी उपलब्ध तथ्यों के आधार पर उनके एकांतवास के प्रयोगों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। जब उन्होंने प्रथम बार एकांतवास का प्रयोग किया तो पत्रकारों ने उनसे पूछा- 'इतने बड़े संघ का नेतृत्व संभालते हुए आपने एकांतवास का निर्णय कैसे लिया?' पूज्य गुरुदेव ने प्रश्न को समाहित करते हुए कहा- 'एकांतवास की साधना का यह निर्णय सुचिन्तित था। वर्षों से मेरी यह भावना थी कि साधना के क्षेत्र में कुछ नए प्रयोग करूं। मैं अपने धर्मसंघ को और अपने आपको अध्यात्मविद्या की दिशा में अधिक गतिशील देखना चाहता हूं। दूसरी बात, जैनसाहित्य में उल्लिखित विधियों के प्रयोग वर्तमान में छूट से गए हैं। मैं चाहता हूं कि वे अज्ञात और विस्मृत विधियां पुनः प्रकाश में आएं। इसी दृष्टि से मैंने यह प्रयोग प्रारंभ किया है।' .
एकांतवास के सर्वप्रथम प्रयोग की घोषणा भाद्रव शुक्ला त्रयोदशी को राजनगर में की गयी। जिस किसी ने एकांतवास की बात सुनी, अचम्भित रह गया क्योंकि तेरापंथ का आचार्य जनता से दूर रहे, जनसंपर्क न करे, यह बात बुद्धिगम्य नहीं थी। यह सात दिन का प्रयोग था, जिसमें चिंतन, मनन, ध्यान, स्वाध्याय आदि पर अधिक जोर दिया गया। यह एकांतवास २५-९-६० को प्रारभ्म किया गया। आश्विन कृष्णा चतुर्थी को प्रातः एकांतवास के लिए गुरुदेव पहाड़ी पर स्थित दयालशाह के देहरे पर पहुंचे। साथ में १५ साधु एवं सैकड़ों भाई-बहिन थे। एकांतवास के चिंतन से लोगों के चेहरे खिन्न थे। देहरे पर पहुंचते ही गुरुदेव ने मंदिर के सभामण्डप में साधुओं के साथ एक घंटे का ध्यान किया। आहार के बाद प्रतिदिन चिंतन-गोष्ठी चलती तथा मध्याह्न में आध्यात्मिक ग्रंथों का सामूहिक वाचन चलता। उसके बाद गुरुदेव प्राचीन मर्यादावलि का अवलोकन करवाते। रात्रि में सह स्वाध्याय का क्रम चलता। पूज्य गुरुदेव सभामण्डप के मध्य विराजते। उनके चारों ओर चार-दिशाओं में छह-छह साधु अवस्थित रहते। सात दिन तक स्वाध्याय का यही क्रम चला। विज्ञप्ति में प्रकाशित 'संस्मरणों के वातायन' में इस एकांतवास का अनुभव पूज्य गुरुदेव ने इन शब्दों में व्यक्त किया है- 'उन सात दिनों में बहुत गम्भीर चिंतन, मंथन,