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अध्यात्म के प्रयोक्ता
इय संथुओ महायस!, भत्तिब्भर-निब्भरेण हियएण। ता देव! दिज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ॥५॥ ॐ ह्रीं श्रीं अहँ नमिऊण पास विसहर वसह जिण
फुल्लिग ह्रीं श्रीं नमः। विघनहरण
विघनहरण मंगलकरण, स्वाम भिक्षु रो नाम। गुण ओलख सुमिरण करै, सरै अचिन्त्या काम॥
इस अनुष्ठान में जप और आगम-स्वाध्याय के साथ तप का योग भी आवश्यक रखा गया। तप में-एकासन, आयंबिल, षड्विगय-वर्जन, पंचविगय-वर्जन और दस प्रत्याख्यान में से किसी एक तप की आराधना इस कालावधि में की जाए। व्यक्तिगत इच्छा के अनुसार नौ दिन तक एक ही तप अथवा वैकल्पिक तप की आराधना भी की जा सकती है।
___संभागी श्रावक श्राविकाओं के लिए निम्नांकित नियम भी अनुष्ठानकाल में पालनीय हैं
- ब्रह्मचर्य का पालन - रात्रिभोजनविरमण (चौविहार/तिविहार) - जमीकन्द का वर्जन। . यह क्रम पिछले अनेक सालों से सामूहिक रूप से चल रहा है।
इन दिनों पूज्य गुरुदेव एवं आचार्यश्री के प्रवचन भी इतने आध्यात्मिक एवं प्रेरक होते कि किसी भी आत्मार्थी या मुमुक्षु साधक के भीतर हलचल हुए बिना नहीं रह सकती। सन् १९९६ लाडनूं में नवाह्निक कार्यक्रम में गुरुदेव ने प्रवचन में "अप्पमत्तो परिव्वए" की भावपूर्ण व्याख्या की। दूसरे दिन कुछ साधुओं की ईर्या समिति की स्खलना देखकर प्रवचन में प्रेरणा देते हुए गुरुदेव ने कहा- "संतों! इतनी आत्मविस्मृति किस काम की? कल बात सुनी और आज भूल गए। क्या हमारी भी जानकी चली गयी? सीता-हरण के बाद श्रीराम आत्म-विस्मृत हो गए। लक्ष्मण विजयी होकर पुनः राम के पास आए तो वे अजनबी की भांति बात करने लगे- कौन राम, कौन लक्ष्मण? कौन सीता? पर लक्ष्मण के प्रयास से जब उनका चित्त्रोद्वेग दूर हुआ तब कहीं वे अपनी मूल स्थिति में आए। संतों! जानकी के जाने से राम की ऐसी स्थिति बनी। हमारी जानकी तो