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साधना की निष्पत्तियां खोलकर रखू तो वह अस्वाभाविक नहीं होगा।' यह वक्तव्य अध्यात्म के उच्च शिखर पर आरूढ़ साधक के सरल मानस से ही उद्गीर्ण हो सकता है। पूज्य गुरुदेव की निश्छलता को प्रकट करने वाले कुछ घटना प्रसंग सबके लिए प्रेरणास्रोत बन सकते हैं।
मर्यादा महोत्सव का अवसर था। पूज्य गुरुदेव तुलसी ने आचार्य भिक्षु एवं संघ की उत्कीर्तना में जो गीतिका बनाई, उसे स्वयं न गाकर साधुओं से संगान करवाया। यह पहला ही अवसर था जब गुरुदेव ने स्वयं गीत नहीं गाया। लोगों के मन में जिज्ञासा उभर आई। उन्हें समाहित करते हुए गुरुदेव ने परिषद् के मध्य फरमाया- 'आज मैं गीतमय श्रद्धांजलि स्वयं अर्पित न करके साधुओं से करवा रहा हूं। इसका कारण यह है कि इस अवसर पर मैंने जो गीतिका बनाई है, उसकी राग मुझे ठीक से नहीं आ रही थी। मैंने धारने का प्रयत्न भी किया पर मैं अपनी बात स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं कि मेरे कंठ में अभी तक राग ठीक से नहीं बैठी है। इसलिए आज मैंने गीतिका नहीं गाई है। सर्वोच्च पद पर आसीन अनुशास्ता की इस सरल एवं स्पष्ट अभिव्यक्ति ने सबको अभिभूत कर दिया।
पूज्य गुरुदेव जब आचार्य-पद पर आसीन हुए तो उन्होंने सोचा संघ में इतने तत्त्वज्ञ और चर्चावादी साधु हैं वे मुझसे पूछे इससे पहले मैं ही उनके सामने ऐसे प्रश्न रख दूं, जिससे मेरी विद्वत्ता और ज्ञान की धाक जम जाए अतः गुरुदेव ने साधु-साध्वियों के समक्ष कुछ ऐसे प्रश्न रखे, जिनका वे सही उत्तर नहीं दे पाए। इस प्रसंग पर गुरुदेव ने अपनी आत्मालोचनपूर्वक टिप्पणी प्रस्तुत करते हुए कहा- 'अध्यात्म की दृष्टि से छल आदि का प्रयोग सर्वथा परिहार्य है, किन्तु व्यवहार के धरातल पर मैंने इनका उपयोग किया। साधु-साध्वियों से उस समय जो प्रश्न पूछे गये थे, उनकी ज्ञानवृद्धि एवं बुद्धि की परीक्षा के उद्देश्य से नहीं पूछे गए थे। उस प्रसंग में मेरा मुख्य लक्ष्य था अपना प्रभाव स्थापित करना। उससे साधु-साध्वियों के ज्ञान में वृद्धि हुई और उन्हें सम्भलने का मौका मिला, यह प्रासंगिक बात थी।'
__मुनि अवस्था का घटना प्रसंग है। मुनि कुन्दनमलजी एवं नथमलजी बाल मुनियों को लिपि लिखना सिखाते थे। इससे अनेक मुनियों की लिपि सुन्दर हो गयी। पूज्य गुरुदेव की लिखावट सुंदर नहीं थी। मंत्री मुनि