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साधना की निष्पत्तियां
करेंगे।' अनेक आरोप-प्रत्यारोप एवं विरोधों के बावजूद गुरुदेव ने ओजस्वी वाणी में प्रत्युत्तर देते हुए कहा- 'यह कभी नहीं हो सकता कि अमानवीय धंधे की सुरक्षा के लिए आपके भय से मैं मौन साध लूं, बुराई मिटाने का कार्य न करूं । सत्य बात कहने में मुझे किसी तरह का संकोच या हिचकिचाहट नहीं है। जनता का विरोध मुझे सत्य बात कहने से नहीं रोक सकता।' कुछ समय बाद जब सरकार की ओर से इस कार्य के प्रति कड़ी कार्यवाही हुई तो वे ही व्यक्ति कहने लगे- 'गुरुदेव! यदि आपकी बात हम पहले मान लेते तो यह मुसीबत क्यों आती?'
इसी प्रकार सन् १९६५ में गुरुदेव ने समाज को चेतावनी देते हुए सजग किया कि हमें श्रम से नहीं घबराना चाहिए। हमारी संस्कृति हमें पुरुषार्थी एवं परिश्रमी रहने के लिए प्रेरणा देती है। दास-प्रथा को भगवान महावीर ने समाप्त किया। अब नौकर की प्रथा भी शीघ्र ही समाप्त होने वाली है। निकम्मे रहकर नौकरों से काम कराना इस युग में अब सम्भव नहीं है क्योंकि शिक्षा के विकास के साथ आज घरेल नौकरी करके पेट भरने की मनोवृत्ति कम हो रही है। सब अपने मौलिक अधिकारों को समझने लगे हैं। आज प्रत्यक्षतः यह देखा जा रहा है कि नौकर बहुत कम मिलते हैं। जिनके पास नौकर हैं, वे भी भयभीत हैं कि कहीं वे धोखा देकर नं चले जाएं या दूसरे के प्रलोभन में आकर छोड़कर न भाग जाएं। ... गुरुदेव तुलसी सहजयोगी एवं सिद्धपुरुष थे अतः उनके मुख से सहज रूप से निकला शब्द भी उसी रूप में परिणत हो जाता था। ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जो उनकी वासिद्धि के चमत्कार को प्रस्तुत करती हैं। निदर्शन के रूप में कुछ प्रसंगों को प्रस्तुत किया जा सकता है।
सन् १९६० का घटना-प्रसंग है। गुरुदेव आडसर से मुनि सुखलालजी को दर्शन देने हेतु सरदारशहर की ओर विहार कर रहे थे। उस समय तपस्वी मुनिश्री सुखलालजी का अनशन चल रहा था। गुरुदेव ने स्वयंसेवक से पूछा- 'घड़ी में कितने बजे हैं ?' 'सात बजकर इक्कीस मिनिट हुए हैं'- ऐसा स्वयंसेवक ने बतलाया। तभी पूज्य गुरुदेव की वाणी मुखर हुई कि आज काम इक्कीस होगा। पचास कदम आगे चले होंगे कि सामने दाहिनी ओर सांड आता दिखाई दिया। गुरुदेव ने भविष्यवाणी करते हुए