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________________ सार्वभौम अध्यात्म के प्रतिष्ठाता दिन क्राइस्ट ने उसकी आँखों में वेश्या के प्रति रागदृष्टि को देखा। ईसा ने उसे उलाहना देते हुए कहा-'क्या मैंने तुम्हें इसीलिए दृष्टि दी थी?' भाई ने तपाक से उत्तर देते हुए कहा-'आपने मुझे बाह्य दृष्टि तो दी पर अन्तर्दृष्टि नहीं दी। अन्तर्दृष्टि के अभाव में तो वह बाह्य की ओर ही आकृष्ट होगी।' घटना का उपसंहार करते हुए गुरुदेव ने चिकित्सकों को मार्मिक प्रतिबोध देते हुए कहा-'बाह्य दृष्टि देना ठीक है पर अन्तर्दृष्टि का दान महत्त्वपूर्ण है। अन्तर्दृष्टि के अभाव में बाह्यदृष्टि का दान इतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता।' डॉक्टरों ने प्रसन्नमुद्रा में बद्धाञ्जलि कहा-'यह कार्य तो आप ही कर सकते हैं। हमारी ऐसी क्षमता कहाँ?' गुरुदेव ने फरमाया-'व्यसनमुक्ति और अणुव्रत-ये दो आँखें आप अपनी चिकित्सा के साथ और जोड़ दें। फिर आपकी चिकित्सा सर्वांगीण हो जायेगी।' इस प्रेरक प्रतिबोध से डॉक्टरों को अध्यात्म की एक नयी दिशा मिल गयी और उनके चेहरे हर्षोत्फुल्ल हो गए। - इसी संदर्भ में एक और घटना का उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा।९ दिसम्बर १९७८ को गुरुदेव हरिकेपत्तन गाँव में विराज रहे थे। वहाँ सरदार निरंजनसिंह जी गुरुदेव के उपपात में पहुँचे और दीन स्वरों में बोले-'गुरुजी! मैं वर्षों से अध्यापक हूँ। मुझे राष्ट्रीय अवार्ड भी मिला है पर अनेक वर्षों से मैं मूत्रावरोध की बीमारी से परेशान हूँ, आप कोई नुस्खा बताएं, जिससे मैं स्वस्थ हो जाऊं।' गुरुदेव ने मुस्कराते हुए सरदारजी को समाहित करते हुए कहा-'सरदारजी! हम शरीर की नहीं, मन की और आत्मा की चिकित्सा करते हैं। हमारे पास अध्यात्म का टॉनिक है, उससे आपकी शारीरिक बीमारी मिटेगी या नहीं, हम नहीं कह सकते, पर इससे आपको मानसिक शांति अवश्य मिलेगी।' पूज्य गुरुदेव ने उसे आध्यात्मिक प्रवंचन के साथ नवकार महामंत्र के जप का निर्देश दिया। गुरुदेव के उद्बोधन को सुनकर सरदारजी का वदन कमल की भाँति खिल उठा। ऐसा प्रतीत हुआ मानो व्याधि की पीड़ा उन्हें कभी थी ही नहीं। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने अपने सत्प्रयासों से अध्यात्म को जीवन्त बनाया। वे अनेक बार इस अनुभव को प्रकट करते थे कि मुझे श्मशान की शांति में विश्वास नहीं, चैतन्यपूर्ण शांति में विश्वास है। उन्होंने स्वयं अध्यात्म का स्वाद चखा और अपनी दिव्यवाणी से लाखों लोगों को
SR No.002362
Book TitleSadhna Ke Shalaka Purush Gurudev Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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