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अध्यात्म के प्रयोक्ता
का अनुष्ठान प्रारम्भ किया गया। इस दीर्घकालीन एकान्तवास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए पूज्य गुरुदेव लिखते हैं- ज्यों-ज्यों समझ परिपक्व हुई, आगम-साहित्य का अध्ययन किया और अनुभवों में कुछ प्रौढ़ता आई, त्यों-त्यों साधना में नए-नए उन्मेष लाने की भावना बल पकड़ती गई। साधना का क्षेत्र प्रायोगिक होता है, मैंने अपने जीवन में अनेक प्रयोग किए, प्रयोगों की श्रृंखला में एक नई कड़ी जोड़ने के लिए मैंने सत्ताईस दिन एकान्तवास करने का निर्णय लिया। इसमें खाद्य संयम का विशिष्ट प्रयोग हुआ। गुरुदेव खाने में केवल सफेद द्रव्य (दूध और केला) वह भी अल्प मात्रा में ग्रहण करते थे। इस अनुष्ठान के अन्त में उन्होंने तेले की तपस्या का भी प्रयोग किया। यह प्रयोग साधना की दृष्टि से विशेष उपलब्धि भरा रहा। एकांतवास के दौरान पूज्य गुरुदेव ने साधनाकाल में हुए अनेक अनुभवों को लिपिबद्ध भी किया। वे अनुभव 'खोए सो पाए' पुस्तक में प्रकाशित हो चुके हैं। ये अनुभव अनेक साधकों के लिए प्रेरणास्पद हो सकते हैं। यहां लिपिबद्ध अनुभवों के कुछ उद्धरण प्रस्तुत किए जा रहे
* इस बार मेरी साधना में मैंने आभामण्डल पर विशेष ध्यान दिया। मेरी सजगता से वह स्वस्थ बना और मुझे अपनी साधना में उसका विशेष सहयोग प्राप्त हुआ। इसलिए मैं उसके प्रति आस्थावान् बना हूं। आभामण्डल या ओरा के संबंध में वैज्ञानिक मान्यताएं भी स्पष्ट हैं। मैंने अब दृढ़ निश्चय कर लिया है कि अपने ओरा को अधिक विशुद्ध बनाना है और अपनी साधना को आगे बढ़ाना है।
* 'आज प्रातः ध्यान करके उठा, तत्काल कुछ आलोक का आभास हुआ। मैंने अनुभव किया, रात का गहरा अन्धकार क्षीण हो रहा है। विघ्न-बाधाएं अपने आप विलीन हो रही हैं। मेरे चारों ओर प्रकाश बिखर रहा है। उस प्रकाश की परिधि में मुझे अपूर्व उल्लास की अनुभूति हुई। पिछले कई दिनों से ध्यान, जप आदि की विशेष साधना कर रहा हूं, किन्तु ऐसा उल्लास कभी नहीं मिला। उस समय एक विशिष्ट स्फूर्ति, जागृति और मानसिक प्रसत्ति में मैं आकण्ठ निमग्न हो गया। इस अनुष्ठान का कोई प्रत्यक्ष परिणाम सामने आ रहा है, ऐसी प्रतीति हुई।'