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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
१८ प्रतीक बन गया है। वे प्रायः कहते थे–'धर्मगुरु तो आप मुझे कहें या न कहें लेकिन मैं साधक हूँ और समाज-सुधारक भी हूँ।'
इस युग में अध्यात्म और साधना को सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठित करने का बहुत बड़ा श्रेय पूज्य गुरुदेव को जाता है। जिस समय लोग अध्यात्म की उपेक्षा करने लगे थे उस समय उन्होंने एक व्रत लिया कि अध्यात्म के प्रति जनता में गहरी अभिरुचि जागृत करनी है। सन् १९८७ में दिल्ली प्रवेश पर स्वागत का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा-'हमने अपने जीवन में दो काम करने का प्रयत्न किया है। पहला काम है-अध्यात्म की प्राचीन संस्कृति को नवीनतम रूप में प्रस्तुति देना। दूसरा कार्य धर्म और सम्प्रदाय दो हैं, एक नहीं, इसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति करना। सन् १९५४ में प्रदत्त प्रवचन का अंश उनकी तीव्र आध्यात्मिक तड़प का साक्षी है-"मेरा बहुत वर्षों का एक स्वप्न था, कल्पना थी कि जिस प्रकार नाटक, सिनेमा को देखने, स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों को खाने में लोगों का आकर्षण है, वैसा ही या उससे भी बढ़कर आकर्षण धर्म व अध्यात्म के प्रति जागृत हो। लोगों को धर्म व अध्यात्म की बात सुनने का निमंत्रण नहीं देना पड़े, बल्कि आन्तरिक जिज्ञासावश और आत्मशांति की प्राप्ति के लिए वे स्वयं उसे सुनना चाहें तथा धर्म और अध्यात्म को जीना पसन्द करें।' उनकी उदन आकांक्षा थी कि भारत भले ही भौतिक विकास में अन्य देशों से पीछे रह जाए पर वह पुनः विश्व का आध्यात्मिक गुरु बने। यहाँ से निकलने वाली अध्यात्म की किरणें समूचे विश्व को उद्भासित करें। अपनी इस आकांक्षा को वे इन शब्दों में व्यक्त करते थे-'मेरे जीवन की सबसे बड़ी साध है कि मैं अध्यात्म को तेजस्वी और ओजस्वी देखू। जिस दिन ऐसा होगा मैं कृतकृत्य हो जाऊंगा। यदि ऐसा नहीं होगा तो न जाने इस दुनिया की क्या गति होगी? लोग दुर्दिन की कल्पना करते हैं किन्तु मैं अध्यात्म के अभाव को ही बड़ा दुर्दिन मानता हूँ।'
__ पूज्य गुरुदेव ने अनेक बार अपने जन्मदिवस को भी अध्यात्मजागृति दिवस के रूप में मनाया। ६३वें वर्ष प्रवेश के उपलक्ष्य में सुधर्मा सभा में जनता को अध्यात्म की प्रेरणा देते हुए गुरुदेव ने फरमाया"आज आप लोग मेरे जन्मदिन को अध्यात्म-जागृति दिवस के रूप में