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सार्वभौम अध्यात्म के प्रतिष्ठाता
मना रहे हैं। अध्यात्म जागृति से मेरा तात्पर्य आत्मा के जागरण से है। जब तक आत्मा जागृत नहीं होगी, हम सारी रात खड़े-खड़े पहरा लगाते रहें
और संयम, त्याग, अध्यात्म की बात करते रहें पर लाभ क्या होगा? आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी आत्मा को सदैव जागृत रखें।"
पूज्य गुरुदेव के भगीरथ प्रयत्नों से अध्यात्म को तेजस्वी और प्रखर होने का अवसर मिला। जीवन के सान्ध्यकाल में उनका संतोष इन शब्दों में प्रकट हुआ- "मैं बिना किसी अतिश्योक्ति के कह सकता हूँ कि अध्यात्म के क्षेत्र में हमारा कार्यक्रम पूरे विश्व में महत्त्वपूर्ण माना जा रहा . है। इस काम को और आगे बढ़ाना है, यह मेरा संकल्प है। मैंने चिंतन किया है कि अब मुझे अध्यात्म के व्यापक क्षेत्र में काम करना है इसलिए धर्मसंघ का दायित्व अपने उत्तराधिकारी को सौंप रहा हूँ।"
कुछ बौद्धिक लोग अध्यात्म को केवल आत्मवादियों के लिए आवश्यक मानते हैं पर इस संदर्भ में गुरुदेव का मानना था कि अध्यात्मवाद आत्मवादी के लिए जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक एक संसारी एवं अनात्मवादी प्राणी के लिए है, क्योंकि उसके बिना समाज, राष्ट्र और परिवार का कोई व्यवहार सुचारु रूप से नहीं चल सकता।
तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी से आध्यात्मिक चर्चा करते हुए गुरुदेव तुलसी ने कहा- "अध्यात्म राष्ट्र की सबसे ऊंची सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति की सुरक्षा किसी भी मूल्य पर होनी चाहिए जिस देश में अध्यात्मनिष्ठ व्यक्ति रहते हों, वह देश बहुत सी बुराइयों से सहज ही बच जाता है। अध्यात्महीन बौद्धिकता जीवन के विकास का नहीं, बल्कि ह्रास का कारण बनती है। गीत के एक पद्य में अध्यात्म की महिमा उजागर करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं. वैज्ञानिक युग में जीने का, बस उसको अधिकार मिला। जिसको जीवन के विकास का, आध्यात्मिक आधार मिला।
आचार्य-पद विसर्जन के बाद उनकी अध्यात्म के प्रचार-प्रसार की तड़प और अधिक तीव्र देखी गई। पद-विसर्जन के अवसर पर प्रदत्त यह वक्तव्य उनके इसी संकल्प की पुष्टि है-'मेरे नए कार्यक्रम की नाभिकीय प्रेरणा है- अध्यात्म। मैं स्वयं अध्यात्म के गंभीर प्रयोग करना