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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी चाहता हूँ और उसे व्यापक बनाने के प्रयास में अपनी शक्ति का.नियोजन करना चाहता हूँ। अध्यात्म और विज्ञान एक दूसरे से अलग रहकर अपूर्ण ही रहेंगे। मेरा प्रयत्न रहेगा कि इनमें सामंजस्य स्थापित हो। इस दृष्टि से कहीं भी कोई कार्यक्रम चलेगा, उसमें मेरा सक्रिय योगदान रहेगा।'
भारत अपनी अध्यात्म प्रधान संस्कृति से विश्रुत था किन्तु आज उसने 'जगद्गुरु' होने की पहचान खो दी है। भारतीय संस्कृति में अपसंस्कृति एवं विकृतियों का मिश्रण देखकर पूज्य गुरुदेव अत्यन्त चिंतित थे। उनकी तीव्र अभीप्सा थी कि भारतीय जनता के समक्ष पुनः अध्यात्म के तेजस्वी स्वरूप को प्रस्तुत किया जाये, जिससे जनता के मन में अध्यात्म के प्रति आकर्षण जग सके। अध्यात्म ही एक ऐसा तत्त्व है, जिसको उज्जीवित और पुरस्कृत कर भारत अपने खोए गौरव को पुन: उपलब्ध कर सकता है। पूज्य गुरुदेव की दृष्टि में अध्यात्म को पुनः प्रतिष्ठित करने में निम्न उपाय कामयाब हो सकते हैं
आध्यात्मिक लोगों से सतत सम्पर्क। * आध्यात्मिक मूल्यों का बार-बार श्रवण। * श्रुत मूल्यों के बारे में गहरी जानकारी।
ज्ञात तत्त्वों का मनन और निदिध्यासन।
जन-कल्याण एवं जन-जागरण को वे अपनी साधना का ही एक अंग मानते थे। इसीलिए उनकी साधना गिरिकंदराओं में कैद न होकर मानव-जाति के कल्याण एवं योगक्षेम के साथ जुड़ी हुई थी। जब कभी उनके सामने यह प्रश्न आता कि आप अपनी साधना को प्रखर करने हेतु जंगल में क्यों नहीं जाते, गाँवों एवं शहरों में ही क्यों घूमते रहते हैं ? इसके समाधान में वे कहते थे- “जिस प्रकार आत्मचिंतन, स्वाध्याय, ध्यान, तप आदि मेरी साधना के अंग हैं, उसी प्रकार जन-कल्याण व जन-उत्थान भी मेरी साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। मैं केवल स्वयं उठने और तैरने का ही पक्षपाती नहीं हूँ, बल्कि इसके साथ-साथ दूसरों को उठाने और तैराने का भी प्रबल हिमायती हूँ। निर्जन एकान्तवास में केवल अपना हित साधा जा सकता है, औरों का नहीं। मेरी मान्यता है कि जिसके पास उत्कृष्ट साधना-बल हो वह जन-जागृति के पुनीत कार्य में भी अपना