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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
३०० जो लोग ४० वर्ष की अवस्था में ही स्वयं को वृद्ध मानकर हतोत्साहित हो जाते हैं तथा शरीर को कष्ट नहीं देने की बात सोचते हैं, उन तथाकथित वृद्धों को जागृत और पुनः उत्साहित करते हुए अपने ७५वें वर्ष के उपलक्ष्य में उन्होंने कहा- "पहले मैं कहता था सत्तर वर्ष से पूर्व कोई अपने को बूढ़ा न माने पर ऐसा लगता है कि इसमें संशोधन कर लेना चाहिए। अब ८० वर्ष से पूर्व कोई अपने आपको बूढ़ा न माने। सत्तर वर्ष से तो उसका प्रारम्भ मात्र होता है।'
अहमदाबाद में हजारों की परिषद् में तेजस्वी भाषा में अपना संकल्प अभिव्यक्त करते हुए गुरुदेव तुलसी ने कहा- 'मुझे अन्तिम समय तक काम करना है। जितना हो सकेगा, जितना कर सकूँगा, उतना अवश्य करूंगा। काम करना है, यह निश्चित है। कितना कर सकूँगा, यह नहीं कह सकता।' इन अभिव्यक्तियों में उनके निरन्तर कर्मशील रहने की मनोभावना प्रकट हो रही है।
कभी-कभी तो उनका आत्मबल और पौरुष इतना प्रखर हो उठता था कि उसके सामने हिमालय ही ऊंचाई भी बौनी प्रतीत होने लगती थी। चलने वाला व्यक्ति सतयुग में जीता है, इस वैदिक सूक्त को वे अपने जीवन में परिपूर्ण देखना चाहते थे। इसलिए अनेक बार वे अपनी पुरुषार्थी आस्था इन शब्दों में व्यक्त करते थे- 'सूर्य या पृथ्वी घूमे या नहीं, हमें तो घूमना है और काम करना है।' यह अभिव्यक्ति उनके जीवट व्यक्तित्व की जीवंत झलक प्रस्तुत करती है तथा इस तथ्य को प्रकट करती है कि उत्साह और निरंतर गतिशीलता ही उनके यौवन का राज था। गुरुदेव का तारुण्य इतना प्रबल था कि किसी भी अच्छे कठिन कार्य को प्रारम्भ करने में उन्हें हिचक नहीं होती थी। उनका सुलझा हुआ चिंतन इस बात को स्वीकारता था कि जहां उल्लास और पुरुषार्थ अठखेलियां करे, वहां बुढ़ापा कैसे आए? वह युवा भी बूढ़ा होता है, जिसमें उल्लास और पौरुष नहीं होता।' यही कारण है कि गुरुदेव की किसी भी क्रिया में उम्र का प्रभाव परिलक्षित नहीं होता था।
प्रौढ़ शिक्षा की प्रेरणा-यात्रा के दौरान हमने अनेक स्थानों पर अनुभव किया कि २५ वर्ष की युवतियां भी स्वयं को वृद्धा मानती हुई कहती थीं