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साधना के शलाकापुरुष : गुरुदेव तुलसी
२१० पर मेरा अभिनन्दन होता है तो दूसरे स्थान पर विरोध । कभी-कभी तो एक ही स्थान पर अभिनन्दन और विरोध दोनों होते हैं। इसे मैं अपने लिए शुभ मानता हूं अगर अभिनन्दन मिलता तो शायद फूलने का मौका मिलता, केवल तिरस्कार ही तिरस्कार होता तो खिन्नता आ सकती थी। अभिनन्दन
और विरोध जीवन में सन्तुलन बनाए रखते हैं।' अपने ७१वें जन्मदिन के अवसर पर उन्होंने इसी तथ्य को जीवन-सूत्र के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा- मेरे जीवन की सफलता में तीन प्रेरणा-सूत्र रहे हैं
- प्रशंसा में प्रसन्नता न हो। - विरोधों में विषण्णता न हो। - असफलता में निराशा न हो।
इन तीन सूत्रों के आधार पर ही मैं अपने पैर जमीन पर टिका कर चलता रहा हूँ और हर स्थिति में समता का अभ्यास कर सका हूं।' उनके मुख से नि:सृत उक्त पंक्तियां साम्ययोगी व्यक्तित्व की जीवन्त निशानी कही जा सकती हैं। जीवन की हर स्थिति में वही व्यक्ति सन्तुलन रख सकता है, जो जीवन को एक कसौटी मानता है और उसमें खरा उतरना जानता है। जो इस सत्य को स्वीकार करके चलता है कि सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, मान-अपमान- ये सभी द्वन्द्व जीवन को संतुलित बनाते हैं तथा कुछ नया सबक सीखने की प्रेरणा देते हैं, वही व्यक्ति जीने का सही आनन्द पा सकता है।
सन् १९७० का घटना प्रसंग है। दक्षिण यात्रा से लौटते समय पूज्य गुरुदेव उज्जैन पधारे। अत्यधिक भीड़ के कारण गुरुदेव बहुत व्यस्त थे। एक भाई आया और गुरुदेव के पैरों की अंगुलियां सहलाने लगा। सहसा सबको जोर से खुशबू आने लगी।' गुरुदेव ने देखा- 'एक भाई पैरों में तरल पदार्थ लगा रहा है। गुरुदेव चौंके और अपने पांव खींचते हुए बोले- 'यह क्या कर रहे हो?' भाई ने कहा- 'मैं इत्र बेचता हूं। आपके चरणों में इत्र लगा सकू, इससे बढ़कर मेरा और क्या सौभाग्य होगा?' गुरुदेव ने फरमाया- 'हम साधु हैं अतः इत्र आदि सुगन्धित पदार्थों का सेवन नहीं करते।' पास में बैठे लोगों के मानस पर कुछ दिनों पूर्व घटित देवास की घटना उभर आई, जब किसी भाई ने पत्थर से प्रहार किया,