________________
११७
अध्यात्म के प्रयोक्ता
रात्रि में श्रोताओं की बहुत अच्छी उपस्थिति हो गयी। संत अच्छे ढंग से प्रवचन कर रहे थे फिर भी जनता को पूरा संतोष नहीं मिल रहा था। जनता की आंखें गुरुदेव के कमरे की ओर लगी हुई थीं। लोगों के भाव संप्रेषित हुए और गुरुदेव प्रवचन - पंडाल में पधार गए । गुरुदेव ने प्रवचन करना प्रारंभ किया। वे प्रवचन देने में इतने तन्मय हो गए कि उन्हें उपवास की बात भी ध्यान नहीं रही । गुरुदेव अमृतवाणी बरसाते रहे और जनता आत्मविस्मृत होकर सुनती रही। बोलते-बोलते एक घंटा बीत गया पर किसी को समय का भान नहीं रहा ।
आनंद का स्रोत भावक्रिया से ही प्रवाहित हो सकता है क्योंकि उसमें तन्मयता आती है। आचार्य महाप्रज्ञ का अनुभव है कि चित्त और शरीर की दिशा भिन्न रहती है तो निश्चित रूप से तनाव बढ़ता है। कार्य के प्रति सर्वात्मना समर्पित हुए बिना उसका परिणाम सुखद नहीं होता क्योंकि इसमें शक्ति अधिक व्यय होती है और निष्पत्ति नहीं मिल पाती अतः शरीर और मन की सहयात्रा ही भावक्रिया है और यही सफलता का सूत्र है । पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी का यही संकल्प था- 'मेरी दृष्टि में जीवन एक अखंड अविभक्त सत्य है, मैं उसी को जीना चाहता हूं ।'
पूज्य गुरुदेव ने प्रत्येक क्षण को समग्रता के साथ जीया था अतः उन्हें हर क्षेत्र में सफलता मिली। उनका अनुभव था कि जिस क्षण समग्रता से जीना आ जाएगा, उसी क्षण साधक अपने आपको सही रूप से पहचान पाएगा। विचलित एवं विभक्त मन वाला व्यक्ति न संयत रहता है, न स्थिर रहता है और न ही सत्य को समझ सकता है। खंडित चेतना वाला साधक शांति और समाधि की तो कल्पना भी नहीं कर सकता । भावक्रिया सधने के बाद साधक इन्द्रियविषय को नहीं छोड़ता पर उसकी अनुभूति अवश्य बदल जाती है। अनुभूति बदलने के बाद नीरस पदार्थ भी सरस अनुभूति दे सकता है।
अप्रमत्तता
अप्रमत्तता और जागरूकता जीवन की सफलता के महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। 'उट्ठिए णो पमायए' महावीर की यह आर्षवाणी हर साधक के लिए प्रेरणादीप है । अप्रमाद की साधना सिद्ध हो जाने पर बुराई का आसन